रणघोष खास: वैवाहिक रेपः दोनों जजों के विचार फैसले से ज्यादा महत्वपूर्ण

रणघोष अपडेट. देशभर से


दिल्ली हाईकोर्ट की बेंच ने वैवाहिक बलात्कार (मेरिटल रेप) के अपराधीकरण की मांग वाली याचिकाओं पर बुधवार को अपना बंटा हुआ फैसला सुनाया यानी एक जज इसे अपराध के दायरे में लाने को सहमत थे जबकि दूसरे जज इसके खिलाफ थे। जस्टिस राजीव शकधर ने कहा कि जहां तक पत्नी के साथ सहमति से संभोग का सवाल है, यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है। जबकि जस्टिस सी. हरिशंकर ने कहा कि धारा 375 का अपवाद 2 अनुच्छेद 14, 19 या 21 का उल्लंघन नहीं करता। इनमें साफतौर पर अंतर है।दोनों के अपने अपने तर्क हैं। भारत में रेप की धारा में फिलहाल पति को इससे छूट मिली हुई है। वो पत्नी की इच्छा के विरुद्ध उससे शारीरिक संबंध बना सकता है और वो कृत्य रेप नहीं माना जाएगा। हाईकोर्ट की बेंच को यही तय करना था कि वो कृत्य रेप है या नहीं। इस निर्णय के बाद याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं जो अपना अंतिम निर्णय इस पर देगा। दोनों के अपने अपने तर्क हैं। भारत में रेप की धारा में फिलहाल पति को इससे छूट मिली हुई है। वो पत्नी की इच्छा के विरुद्ध उससे शारीरिक संबंध बना सकता है और वो कृत्य रेप नहीं माना जाएगा। हाईकोर्ट की बेंच को यही तय करना था कि वो कृत्य रेप है या नहीं। इस निर्णय के बाद याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं जो अपना अंतिम निर्णय इस पर देगा।

जस्टिस राजीव शकधर ने क्या कहा

जस्टिस राजीव शकधर ने कहा कि आईपीसी लागू होने के 162 साल बाद भी एक विवाहित महिला की इंसाफ की मांग को नहीं सुना जाता है, जो अफसोसनाक है। उन्होंने कहा-दरअसल कानून में यह अपवाद पितृसत्ता और तमाम कुप्रथाओं की वजह से है। मेरी राय में यह वर्गीकरण अनुचित और स्पष्ट रूप से मनमाना है। शादी का मतलब यह नहीं है कि जब चाहे सेक्स करना। जबरन यौन संबंध असली बलात्कार है।उन्होंने कहा कि आधुनिक समय में विवाह बराबरी का रिश्ता है। विवाह में प्रवेश करके महिला अपने पति के अधीन या अधीनस्थ नहीं होती है या सभी हालात में संभोग के लिए सहमति नहीं देती है। सहमति से यौन संबंध एक स्वस्थ और आनंदमय वैवाहिक संबंध है। विवाह में गैर-सहमति सेक्स आधुनिक समय में बराबरी के संबंध का विरोधी है। किसी भी समय सहमति वापस लेने का अधिकार महिला के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का मूल है जिसमें उसे शामिल किया गया है। उसे अपने शारीरिक और मानसिक अस्तित्व की रक्षा करने का अधिकार है। गैर-सहमति से सेक्स उसके मूल को नष्ट कर देता है, जो कि उसकी गरिमा, शारीरिक अखंडता, स्वायत्तता को नुकसान पहुंचाता है। वैवाहिक बलात्कार पीड़िता के दिलो दिमाग पर गहरे निशान छोड़ता है जो अपराध होने के बाद भी उसके साथ रहते हैं। जस्टिस शकधर ने वो हालात बताए, जब विवाहित महिलाएं सेक्स के लिए पति को मना करती हैं। उदाहरण के लिए, एक पत्नी अपने पति के साथ यौन क्रिया में शामिल होने से उस समय मना कर सकती है जब वह बीमार हो या मासिक धर्म (पीरियड) से हो या बीमार बच्चे के कारण यौन गतिविधि में शामिल होने में असमर्थ हो। पत्नी ऐसी स्थिति में भी यौन गतिविधि से दूर रहना चाहती है जहां पति एचआईवी पॉजिटिव हो और शारीरिक संबंध बनाने पर वो रोग पत्नी को भी हो सकता है। वो उस संतान के लिए भी चिंतित हो सकती है कि अगर इस संबंध से बच्चा पैदा हुआ तो वो एचआईवी पॉजिटिव ही होगा। ये ऐसे पहलू हैं जो महिलाओं को सेक्स के लिए मना करने पर मजबूर करते हैं। शारीरिक रक्षा उसका पहला मकसद होता है। उन्होंने कहा जस्टिस सी. हरिशंकर ने जस्टिस शकधर के फैसले से असहमति जताई। जस्टिस हरिशंकर ने कहा कि पत्नी और पति के रिश्ते, महिला और पुरुष के अन्य सभी रिश्तों से अलग हैं। यह रिश्ता सेक्स के वैध बनाता है। पत्नी और पति के बीच सेक्स, चाहे याचिकाकर्ता इसे स्वीकार करना चाहें या नहीं, पवित्र है। वैवाहिक संबंधों में, पति को पत्नी के बलात्कारी के रूप में माना गया (बेशक उसने एक या अधिक अवसरों पर, उसकी सहमति के बिना उसके साथ यौन संबंध बनाया है) तो मेरे विचार में यह पूरी तरह से विवाह नामक संस्था के खिलाफ होगा। विवाह को इस देश में कानूनी वैधता मिली हुई है। जस्टिस हरिशंकर ने कहा कि याचिकाकर्ता का यह कहना कि मेरिटल रेप के कृत्य से पैदा हुई बेटी बलात्कार का उत्पाद होगी। जबकि बच्चे का जन्म विवाह नामक संस्था के जरिए हुआ है। उन्होंने धारा 376 के कुछ अपवादों को सार्वजनिक हित में प्रमुख बताया। उन्होंने कहा कि एक अनिच्छुक पत्नी के साथ यौन संबंध रखने वाले पति को किसी अजनबी द्वारा किए गए रेप के बराबर नहीं रखा जा सकता। उन्होंने कहा कि महिला के साथ पुरुष की सहमति से सेक्स न करने की हर घटना रेप नहीं है। उन्होंने कहा: विवाह का अर्थ है कि महिला ने जानबूझकर और स्वेच्छा से उस पुरुष के साथ संबंध में प्रवेश किया है जिसमें सेक्स एक अभिन्न अंग है …। उसने पुरुष से शादी करने का निर्णय किया, सार्थक वैवाहिक संबंधों में कुछ अपेक्षाएं भी होती हैं। यदि पुरुष इस अधिकार का प्रयोग करता है जो विवाह द्वारा उसे प्राप्त होता है और अपनी पत्नी से एक दायित्व निभाने का अनुरोध करता है, जो कि शादी के द्वारा उसे मिला होता है। उसने कहा कि एक पति कभी-कभी, अपनी पत्नी को उसके साथ यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर करता है, भले ही वह इच्छुक न हो। हालांकि, उन्होंने सवाल किया कि क्या “उसका (पत्नी) अनुभव” वही है जो एक महिला जिसे एक अजनबी द्वारा रेप किया जाता है। जस्टिस हरिशंकर ने कहा किएक अजनबी द्वारा किए किए गए रेप और पति द्वारा बनाए गए जबरन संबंध में कुछ तो भेद रखना होगा। दोनों कृत्य समान कैसे हो सकते हैं। जज ने कहा कि ऐसे रेप जो अजनबियों द्वारा किए जाते हैं, कहीं अधिक क्षति और आघात पहुंताते हैं। उन्हें उसी प्रभाव के रूप में नहीं माना जा सकता है, जब किसी के पति द्वारा ऐसा किया जाता है। उन्होंने यह भी कहा कि अदालत विधायिका के इस विचार को गलत नहीं मान सकती कि वैवाहिक संस्था के संरक्षण के लिए ऐसे अपवाद (पत्नी की इच्छा के विरुद्ध सेक्स) को बरकरार रखा जाना चाहिए। विधायिका के निर्णय लोकतंत्र में निर्विवाद रूप से वरीयता के हकदार हैं, क्योंकि विधायिका की आवाज संवैधानिक रूप से, लोगों की आवाज है।जस्टिस हरिशंकर ने कहा कि अदालत का नजरिया कि एक अधिनियम के आपराधिक चरित्र को लेकर है, उसके लिए विधायी प्रावधान को रद्द करने का कोई आधार नहीं है।बता दें कि आरआईटी फाउंडेशन, ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेंस एसोसिएशन और वैवाहिक बलात्कार के अपराधीकरण की मांग करने वाली पीड़िता की याचिकाएं 2015 और 2017 से अदालत के समक्ष लंबित थीं। नए सिरे से जवाब देने के लिए और समय के लिए केंद्र के अनुरोध को खारिज करते हुए, अदालत ने मामले में 21 फरवरी को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। जिस पर उसने 11 मई बुधवार को बंटा हुआ फैसला सुनाया है।

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