हिन्दी भाषा क़ातिल और हत्यारे के बीच डरी हुई खड़ी है!
रणघोष खास. त्रिभुवन
भाषा चुप्पियों के निर्जल जंगल की एक ख़ूबसूरत राह है। भाषा सुगंधित हवा है और शब्द महकते फूल हैं। हर लम्हे का अपना एक वीरानापन होता है। इस वीराने में शब्द ही चुपके से बहार लेकर आते हैं। शब्दों से लम्हों में क़रार आता है और लम्हा-लम्हा मिलकर उदासियों और निराशाओं की भीड़ को चीरकर एक अद्भुत सौंदर्य की उमंग को रचते हैं। ये शब्द ही हैं, जाने किस-किस भाषा से आकर हमारी भाषा की रूह में समा जाते हैं। ये शब्द नहीं आते तो शायद हमारी आवाज़ें ही गुमशुदा हो जातीं। आज ये ही शब्द हैं, जो हमारी ख़ामोशियों में लरज़ाँ हैं।हर नागरिक को अपनी भाषा पर गर्व होता है। लेकिन भाषा का अपना एक मायाजाल है। वह जाने कहाँ से अस्पताल ले लेती है और कहाँ से क़लम उठा लाती है। जाने कहाँ से पानी आता है और कहाँ से चाय। कुछ लोगों को चीनी वस्तुओं से चिढ़ होती होगी; लेकिन वे न कंप्यूटर चिप का कुछ कर सकते और न चाय का। संतरा भी खाना होगा और मेज़ के बिना भी काम कहाँ चल सकता है। पाव भी खाएंगे और गाना भी गाएंगे। इस्तरी भी करेंगे और स्कूल भी जाना ही होगा। न स्टेशन के बिना काम चलेगा और न डॉक्टर के बिना।ख़ास बात तो यह है कि हिन्दी शब्द ही अभारतीय मूल का है। यह मूलत: फ़ारसी शब्द है। लेकिन इससे क्या, अब तो यह भारतीयता का पर्याय है। अब तो इसमें हमारा ममत्व बसता है। एक फ़ारसी शब्द क्यों भारतीयता का पर्याय बन गया? इसकी वजह तलाश करेंगे तो यह ब्राह्मणवाद के भीतर मिलेगी। ब्राह्मणवाद और ईसाई पोपवाद या मुस्लिम मुल्लावाद से किसी भी तरह अलग नहीं है। जैसे अरबी पर मुल्लावादी जकड़न है, वैसे ही संस्कृत पर ब्राह्मणवादी जकड़न गहरी थी और उसने पहले तो सरल वैदिक संस्कृत काे कठिन से कठिनतर किया और फिर इसे इस तरह तालाबंद किया कि आप इस भाषा को बिना ब्राह्मणों की मदद से बोल ही नहीं सकते थे। सांगीतिक अरबी मुल्लों के हाथ लगी तो वह बलबलाने में ऊंट को हराने लग गई और संस्कृत पंडितवादियों के हाथ पहुँची तो दुनिया की श्रेष्ठतम भाषाओं में से एक आम मनुष्य से इतना दूर कर दी गई कि यह रट्टू तोतों के संसार में सिमट गई। कहॉं तो गाय, उक्ष, सर्प, नासा, लोक, मध्यम, शर्करा, पथ, मातृ, मिश्र आदि जैसे असंख्य शब्द लैटिन से लेकर फ्रेंच तक लगभग समान मिलते हैं और कहाँ हम स्वयं ही अपने शब्दों को भूलते जा रहे हैं। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इंडोनेशियाई अपनी भाषा का नाम ही ब्हासा यानी भाषा रखे हुए हैं। मैंने यायावर शब्दों के अध्ययन के दौरान जब पहली बार पढ़ा कि इंडोनेशिया में भाई को सहोदर और बहन को सहोदरा कहते हैं तो मेरी आँखों में आँसू आ गए थे। कारण कि मेरे पिता इस तरह के शब्दों को लेकर बहुत क़िस्से सुनाया करते थे।
तो एक तो हमें कथित विदेशी शब्दों से ऐसा क्या परहेज़ है कि कुछ नए शब्द आते हैं तो उन पर विरोध शुरू हो जाता है। हम नौकरी समाचार एजेंसी ‘भाषा’ में करने के बावजूद बड़े गर्व से अपने को ‘पीटीआई’ से बता सकते हैं; लेकिन न्यूज़ शब्द पर आपत्ति हो जाती है। ख़बर कुछ दूर से आई और न्यूज़ कुछ और दूर से आ गई! अब बताइए, लिव-इन के लिए हिन्दी में क्या अभिव्यक्ति होगी? फेरों की अँगरेज़ी क्या होगी? बरात को क्या कहेंगे?राजस्थान में ‘दूल्हा’ ‘शादी’ के बाद ‘दुलहन’ के घर पहली बार आता है तो सनातन धर्मी महिलाएँ सामूहिक रूप से ‘सिलाम’ गाती हैं! शब्दों का अपना संसार है। लफ़्ज़ों का अपना नूर होता है। इसी से वे भाषा में टिकते हैं। अपनी जगह बनाते हैं।