किसान आंदोलन ना करें, सरकार के पास बची है सिर्फ “तारीख”

रणघोष खास. देशभर से


कृषि के तीन बिलों के खिलाफ आंदोलन कर रहे किसान संगठनों की सरकार से 9 वें दौर की बातचीत एक ओर तारीख के साथ बिना दिशा- दशा के खत्म हो गईं। यानि मूल सवाल वहीं खड़ा  है। क्या सरकार किसानों के कहे मुताबिक तीन कानूनों के वापसी को तैयार होगी? क्या किसान तीन कानून के वापसी से कम पर तैयार होंगे? इन सब सवालों का जवाब ना है। क्योंकि न किसान झुकने को तैयार हैं और न ही सरकार। वार्ता सिर्फ वार्ता के लिए हो रही है और कवायद की जा रही है कोई तो ऐसा सूत्र मिले जिससे वार्ता सफल हो। चीज़ें जैसी दिखती हैं, वैसी वे नहीं हैं। जो कहा जा रहा है, उससे अधिक वह गूँज रहा है जो कहा नहीं गया। जब कोई आपको गले लगाने बढ़ता है तो उसके दस्तानों पर ध्यान जाता है।” किसानी संबंधी क़ानूनों पर मध्यस्थता करने के लिए समिति की घोषणा के पहले तक सर्वोच्च न्यायालय में जो कुछ चल रहा था, उसे देखते हुए बस यही सब कुछ ख्याल आ रहा था, लेकिन समिति के नामों के ऐलान के बाद जो झीना-सा पर्दा था, वह भी हट गया।सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की पीठ से जो सरकार के ख़िलाफ़ गर्जन-तर्जन हो रहा था, उसे फटकार सुनाई जा रही थी, उसका खोखलापन तुरत उजागर हो गया। पूरी सुनवाई किसानों के हित, देश की भलाई का एक कमज़ोर स्वांग भर थी। आलेख लचर था और अभिनेता कमज़ोर। जब कहानी का अंत बिना उसे शुरू किए पाठकों को मालूम हो तो कहानीकार को कुछ और धंधा खोज लेना चाहिए।अदालत ने मध्यस्थता के लिए वैसे नाम चुने जो इन क़ानूनों के पैरोकार हैं और ख़ुद को किसानों का उनसे बड़ा हितैषी मानते हैं। ऐसा करते ही उसने किसानों का भरोसा गंवा दिया। अब यह समिति दफ्तर खोलकर बैठी रहेगी और कोई किसान उसकी चौखट पर भी नहीं फटकेगा। यह समिति की भी बेइज्जती होगी। कभी हुआ करता कि ऐसी समितियों में नाम आने से प्रतिष्ठा बढ़ती थी। आज के ज़माने में यही नहीं कहा जा सकता। किसानों ने पूरी कार्रवाई को देखा और कहा, हमारी भलाई सोचने के लिए बहुत शुक्रिया लेकिन समिति का जो जाल आपने बिछाया है हम उस पर नहीं बैठने वाले। हम एक सीधा सा वाक्य कह रहे हैं कि सरकार ये तीनों क़ानून वापस ले ले। सरकार जो हमारा भला करने पर तुली हुई है, वह हमें हमारे हाल पर छोड़ दे।

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