क्योंकि सच नहीं बदलता, इसलिए नहीं बदलना चाहिए पत्रकार का जमीर
रणघोष खास. वोटर की कलम से
सदियों पहले किसी महानुभाव ने पेट को पापी कह दिया. आज तक पेट ऐसा विलेन बना बैठा है कि उसे भरने की हर जुगत पाप की श्रेणी में आ जाती है. भले ही पेट केवल एक अंग है, जहां चटोरी जीभ से होकर खाना पहुंचता है और शरीर के बाकी अंगों तक ज़रूरी रसायन को निचोड़ कर पेट ही भेजता है. कहने का तात्पर्य यह कि हमारी दुनिया में किसी भी चीज़ को लेकर एक सोच बन जाती है और फिर उस लेबल को हटा पाना नामुमकिन सा हो जाता है. ऐसा ही एक लेबल बाजार के माथे पर चस्पा है। मीडिया और बाजार के नाजुक रिश्ते को खासतौर से चुनाव के समय समझने से पहले चंद सच को स्वीकार करके चलना होगा। मीडिया समाज का चौथा स्तम्भ होने के साथ- साथ एक व्यवसाय भी है। मीडिया स्कूलों से निकलने वाले छात्र समाज सुधार के साथ-साथ रोटी भी कमाना चाहते हैं. मीडिया का विस्तार बाजारवाद के दौर में ही सम्भव हो पाया है. मीडिया के विस्तार से मीडिया की आज़ादी बढ़ी है. लेकिन इसके साथ ही तैयार हो गई है, वह पतली-सी रेखा, जो मीडिया के बाजारी और बाजारू होने का फर्क तय करती है, जहां ख़बरें बाजार के मिजाज से लिखी जाती हैं, जहां स्पॉन्सर के पैसों की खनक, आवाज की धमक तय करती है। तो क्या बाजारवाद के दौर का मीडिया अपनी विश्वसनीयता खो रहा है. या फिर वाकई मीडिया पर बाजारवाद हावी हो चुका है। क्या मायने हैं बाजारवाद के और कैसे इस दौर में रहते हुए मीडिया अपनी स्वतंत्रता केवल राजनीतिक विचारधारा से नहीं, बल्कि बाजार से भी बनाये रखे. इन सवालों के जवाब सैद्धांतिक हैं, उन्हें व्यावहारिक बनाना मौजूदा युग के मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती है। मीडिया एक ऐसा थानेदार है, जिसकी खबर लेने वाला कोई नहीं था। इसमें कोई शक नहीं आज भी देश के सुदूर कोनों में बैठे लोग मीडिया से न्याय की आस लगाते हैं. जो पुलिस प्रशासन के सताये, राजनेताओं के ठगे हैं, वे मीडिया की ओर ही ताकते हैं. यह मीडिया का परम दायित्व है कि उन उम्मीदों पर खरा रहे और मीडिया की तमाम आलोचना के बीच भी अगर लोगों की वह उम्मीद जिन्दा है, तो यह बाजारवाद के दौर में मीडिया की बहुत बड़ी उपलब्धि है। हमें मंजूर हो न हो, वक्त बदल चुका है और बदले हुए वक्त ने सब कुछ बदल दिया है। अब एक महीने का नवजात करवट ले लेता है। दो साल के बच्चे मोबाइल, टेबलेट, आईपैड में महारत हासिल कर चुके हैं. धरती का पारा उलट-पुलट हो चुका है, तो पत्रकारिता भी बदली है, ख़बरों का कलेवर भी और ख़बर देखने वालों की पसन्द भी लेकिन जो कभी नहीं बदलना चाहिए, वह है एक पत्रकार की अन्तरात्मा, एक पत्रकार का जमीर, क्योंकि लाख आरोप लगा दिए जाएं, लाख नियम-कायदे तय कर दिए जाएं, जो सही है और जो सच है, उसकी परिभाषा कभी नहीं बदलेगी