सवाल यह है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय 1991 का क़ानून रद्द कर देगा तो देश की राजनीति में भूचाल आ जाएगा या नहीं? सैकड़ों-हज़ारों मसजिदों, दरगाहों और क़ब्रिस्तानों को तोड़ने के आन्दोलन उठ खड़े होंगे। देश में सांप्रदायिकता की आँधी आ जाएगी। मेरी अपनी राय है कि मंदिर-मसजिद के मामले हिंदू-मुसलमान के मामले हैं ही नहीं। ये मामले हैं- देशी और विदेशी के!
रणघोष खास : डॉ. वेद प्रताप वैदिक की कलम से
अब से 30 साल पहले जब बाबरी मसजिद विवाद ने बहुत जोर पकड़ लिया था, तब नरसिंहराव सरकार बाबरी मसजिद के विवाद को तो हल करना चाहती थी, लेकिन इस तरह के शेष सभी विवादों को विराम देने के लिए वह 1991 में एक क़ानून ले आई। इस क़ानून के मुताबिक़, देश के हर पूजा और तीर्थ स्थल जैसे हैं, उन्हें वैसे ही बनाए रखा जाएगा, जैसे कि वे 15 अगस्त 1947 को थे।
पूजा स्थल क़ानून को चुनौती
अब इस क़ानून को वकील अश्विन उपाध्याय ने अदालत में चुनौती दी है। उनके तर्क हैं कि मुसलमान हमलावरों ने देश के सैकड़ों-हज़ारों मंदिरों को तोड़ा और भारत का अपमान किया। अब उसकी भरपाई होनी चाहिए। उसे रोकने का 1991 का क़ानून इसलिए भी ग़लत है कि एक तो 15 अगस्त 1947 की तारीख मनमाने ढंग से तय की गई है। उसका कोई आधार नहीं बताया गया।
दूसरा, हिंदू, बौद्ध, सिखों और ईसाइयों पर तो यह क़ानून लागू होता है, लेकिन मुसलमानों पर नहीं। वक़्फ़-क़ानून की धारा 7 के अनुसार मुसलमान अपनी मजहबी ज़मीन पर वापिस क़ब्ज़े का दावा कर सकते हैं। तीसरा, यह भी कि ज़मीनी क़ब्ज़ों के मामले राज्य का विषय होते हैं। केंद्र ने उन पर कानून कैसे बना दिया?
भूचाल की तैयारी?
उपाध्याय के इन तर्को का विरोध अनेक मुसलिम संगठनों ने जमकर किया है, लेकिन विश्व हिंदू परिषद की इस पुरानी माँग ने फिर ज़ोर पकड़ लिया है। उसकी माँग है कि काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि पर जो मसजिदें ज़बरन बनाई गई थीं, उन्हें भी ढहाया जाए।
अब सवाल यह है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय 1991 का क़ानून रद्द कर देगा तो देश की राजनीति में भूचाल आ जाएगा या नहीं? सैकड़ों-हज़ारों मसजिदों, दरगाहों और क़ब्रिस्तानों को तोड़ने के आन्दोलन उठ खड़े होंगे। देश में सांप्रदायिकता की आँधी आ जाएगी।
हिन्दू-मुसलमान मामला नहीं!
मेरी अपनी राय है कि मंदिर-मसजिद के मामले हिंदू-मुसलमान के मामले हैं ही नहीं। ये मामले हैं- देशी और विदेशी के! विदेशी हमलावर मुसलमान ज़रूर थे लेकिन उन्होंने सिर्फ मंदिर ही नहीं तोड़े, मसजिद भी तोड़ीं। उन्होंने अपने और पराए मजहब, दोनों को अपनी तलवार की नोंक पर रखा।
अफ़ग़ानिस्तान में बाबर ने, औरंगजेब ने भारत में और कई सुन्नी आक्रांताओं ने शिया ईरान में मसजिदों को भी ढहाया। अफ़ग़ानिस्तान के प्रधानमंत्री रहे बबरक कारमल (1969 में) मुझे बाबर की कब्र पर ले गए और उन्होंने कहा कि बाबर इतना दुष्ट था कि उसकी कब्र पर कुत्तों से मुतवाने का मन करता है।
यह खेल मजहब का नहीं, सत्ता का रहा है। लेकिन सैकड़ों वर्षों के अंतराल ने इसे हिंदू-मुसलमान का सवाल बना दिया है। नेता लोग इसे लेकर राजनीति क्यों नहीं करेंगे? लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत का यह कहना काफी ठीक है कि इस मुद्दे पर देशवासी जरा धैर्य रखें, सारे पहलुओं पर विचार करें और सर्वसम्मति से ही फैसला करें। इस मुद्दे पर देश में जमकर विचार-मंथन आवश्यक है।