ऐसी थी हमारी मां.. वह कभी स्कूल नहीं गईं लेकिन जाति-पाति के बंधन में उसने हमें बचपन में ही आजाद कर दिया था..

 रणघोष खास. सुरेश कुमार की कलम से


मां तो मां ही होती है। उसे जिंदगी के किसी तराजु में नहीं तोला जा सकता। सृष्टि की संपूर्णता ही उसमें समाई होती है। 10 दिन पहले 29 अप्रैल को गांव नांगल में छोटे भाई बबरभान के साथ रात को बात करते- करते मां खामोश हो गईं। वह चुपचाप बिना किसी को परेशान किए ऐसे चली जाएगी। अभी भी यकीन नहीं हो रहा है। हम तीन भाई है। पिताजी रिटायर सुबेदार लख्मीचंद 10 साल पहले ही हमें छोड़कर चले गए थे। मां जिसका बचपन में नाना- नानी ने राम प्यारी नाम रखा था। जैसा नाम वैसी हमारी मां। वह कभी स्कूल नहीं जा पाई लेकिन जिंदगी के मायनों को उसने अपने बचपन में पढ़ लिया था। इसलिए जब शादी के बाद ससुराल आई तो सभी को साथ लेकर चलने की अपनी सोच से सब को अपना बना लिया। मां को कभी जात-पात के बंधन में नहीं देखा। हम बहुत छोटे थे। मेरे मित्र अलग अलग जाति से थे। गांवों में आज भी जाति के नाम की बीमारी पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है लेकिन मां तो उसे हमारी ओर अपनी जिंदगी से बहुत पहले ही मार चुकी थी। इसलिए हम सभी दोस्त घर ही खाना पीना करते थे। मां ने कभी नहीं कहा कि दूरियां बनाकर रहो। उलटा हमसे से ज्यादा उन्हें स्नेह देती थी। ऐसी थी हमारी मां। वह हमें स्कूली किताबें तो नहीं पढ़ा सकती थी लेकिन जिंदगी के वसूलों को सलीके से हमारे शरीर में आत्मसात जरूर कर दिया। किसी का बुरा मत करना, धोखाधड़ी- चोरी चाकारी से दूर रहना सबसे बड़ी बात जिंदगी में जात-पात से दूर रहना। हमने जीवन में पढ़ाई के नाम पर ना जाने कितनी किताबों को पढ़ा हमें नहीं मालूम। मां ने जो सिखाया वहीं हमारी जिंदगी की असली शिक्षा बन गई जो सुगंध बनकर घर को महकाए हुए हैं। जिसकी बदौलत हम तीनों भाई एकसूर में एकसाथ नजर आते हैं। बड़ा भाई विजय भी सेना में सुबेदार था। छोटा बबर गांव में खेती को संभाल रहा था। तीनों बहुओं उर्मिला, अनिता, आशा के लिए वह आदर्श थी। वह उन्हें बहुएं नहीं अपनी बेटियां मानती थी। मजाल मां के मूल्यों को कोई चुनौती दे। जिंदगी के 75 साल में मां आजाद शत्रु की तरह रही। कभी किसी के साथ कोई विवाद नहीं था। कभी किसी की बुराई सुनते नहीं देखा। अपनी तकलीफों एंव दर्द को हमेंशा छिपाए रखती थी ताकि उसकी वजह से किसी को परेशानी नहीं हो। कुछ माह पहले वह बीमार हुई तो हमने उसे अस्पताल में भर्ती करा दिया। वहां भी सारे काम खुद करती। पता नहीं उसके शरीर में एक अदभूत शक्ति थी जिसने उसे कभी किसी के सामने असहाय या कमजोर नहीं होने दिया। कौन कहता है मां समय आने पर विदा होती है। वह तो हमारे कण कण में समाई होती है। मां तो कभी जुदा नहीं होती। यह भ्रम है इसे मिटा दीजिए। 

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