कोई बताएगा नवरात्रा के प्रति आस्था बढ़ रही है या तेजी से बढ़ते दुष्कर्म के मामले ?

रणघोष खास. एक भारतीय की कलम से


नवरात्रा के दौरान एक रिपोर्ट मनो मस्तिक में संडाध मार रही है। देश में औसतन हर 21 मिनट में कोई न कोई महिला दुष्कर्म का शिकार होती है। और हमारे सांसद बैठकर कानून बनाते रहते हैं। हमारी पुलिस उन नई कानूनी धाराओं में पुरातन तरह से जांच करती है। अपराधियों को ढीला छोड़ देती है। फिर उन्हें गिरफ्तार करती है। फिर बोली। बिक्री। घूस। पाप।  कई तरह के दुष्कर्म। फिर अदालतों से छूट जाते हैं। नए दुष्कर्म के लिए। कैसे? जि़न्दा तो सभी रहते हैं, जीवंत रहने के लिए कुछ तो ऐसा चाहिए कि मन में सुकून हो। पुलिस वाले भी तो आखिरकार इंसान होते हैं। कभी तो आत्मा कचोटती होगी? कभी तो पुलिस थाने झकझोरते होंगे? कि सांसदों के कानून बनाने का इंतजार क्यों कर रहे हो? अदालतों में जिरह होने और महिलाओं को और अपमानित करने की बाट क्यों जोह रहे हो? पहले ही इतना खौफ पैदा क्यों नहीं कर पाते कि हर दुष्कर्मी थर-थर कांप उठे।किन्तु थाने क्योंकर झकझोरेंगे? थानों में तो साक्षात शैतान बसा होता है। कुछ ही थानों में इंसान बसते हैं। कम ही थाने इंसानियत से चलते हैं। यह तो बहुत दूर की बात है। अधिकतर थानों में कानून अंतिम सांस गिनता है। कुछ ही थाने कानून से चलते हैं। वॉल स्ट्रीट जर्नल जैसे विश्व के सर्वाधिक प्रतिष्ठित आर्थिक अखबार ने भी एक पूरी किताब हमारे देश में उठ रही, दबाई जा रही चीत्कारों पर लिख दी है। जिस अखबार को भारत की बढ़ती समृद्धि पर अमेरिकी संदर्भ में चिंता होनी चाहिए या आर्थिक अर्थों में खुशी – वह हमें दुष्कर्म का देश बताकर चिंतित है, रोष जता रहा है। महिलाएं हाहाकार कर रही हैं। सिर्फ शिकार महिलाएं। हमारे निर्वाचित नेतृत्व हाहाकार कर रहे हैं कि धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है। कोई इसे ऐच्छिक कहकर स्वेच्छाचारिता कर रहा है, तो कोई जबरदस्ती बताकर कानों पर अत्याचार। धर्म तो महिलाओं को समानता देने का है, इसे सचमुच परिवर्तित करना होगा।कितने होंगे जो नारी गरिमा पर हमला कर सकते हैं, करना चाहते हैं?कुल कितने अपराधी होंगे ऐसे?भावी दुष्कर्मी मिलाकर?  यानी जो ऐसे कुत्सित षड्यंत्र में रुझान रखते हैं उन सब को मिलाकर। कितने होंगे? हजार। दस हजार। एक लाख? कितने? पुलिस वाले‌? कोई  21 लाख। कहीं 25 लाख भी लिखा है।और हम? सवा सौ करोड़। चींटी से भी कम आकार के अपराधियों से डर रहे हैं। शर्म से गड़ रहे हैं। नैतिक रूप से मर रहे हैं। चीख तो हमारी, हमने ही घोंट रखी है।क्या मजाल कि भारतवर्ष के नागरिक हम गर्जना कर दें कि – अब नहीं। कोई ऐसा पाप नहीं कर सकेगा। तो कौन कर पाएगा? ऐसा संकल्प असंभव है। किन्तु लेना ही होगा। कोख से पैदा हुए हैं। नारी के उऋण कभी नहीं हो सकते। किन्तु धर्म तो निभा सकते हैं।धर्म यानी कर्तव्य। धर्म यानी कर्म।धर्म यानी समानता। धर्म अर्थात् आप।

 

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