खबरों को बंदरियां, पत्रकार को मदारी समझने की भूल मत करिए, जैसा है वैसा ही रहिए

Danke Ki Chot par logoरणघोष खास. प्रदीप नारायण


बहुत मुश्किल होता है किसी पत्रकार का अपने पेशे की बात करना। कोविड-19 से पहले ओर आज के हालातों पर गौर करें तो सबकुछ बदला हुआ नजर आता है। हमें नहीं पता इंसान अपनी तारीफ के लिए झूठ का सहारा क्यों लेता है। हमें यह भी नहीं पता कि दिन में कम से कम दो-तीन बार आइने में अपना चेहरा देखने के बाद अपने आप से सवाल क्यों नहीं करता। हम आज तक यह नहीं समझ पाए हैं कि  सड़क के किसी कोने या गली चोराहे पर छह- सात फीट की ऊंचाई पर रस्सी से आमने सामने बांस खड़े कर उस पर चलने वाली 8-10 साल की मासूम बच्ची के टैलेंट को हम पापी पेट का सवाल क्यों मान लेते हैं। जब यह बच्ची रस्सी पर चलते हुए अलग अलग अंदाज में करतब दिखाती है ओर नीचे खड़ी उसकी मां डमरू बजाकर जमा हुई भीड़ के सामने साड़ी के पल्लू को आगे करने के लिए क्यों मजबूर हो जाती है। क्यों हम इस प्रतिभा को प्रोत्साहित करने की बजाय भीख के अंदाज में दो- चार- पांच रुपए उसके पल्लू में डालकर चले जाते हैं। अगर यहीं बच्ची किसी संपन्न परिवार से होती ओर फाइव स्टार सरीखे स्कूल के मंच पर  या खेल मैदान के मैदान में अपनी प्रतिभा को दिखाती तो यहीं भीड़ उसे योग गुरु ना जाने अनेक नामों से इसी बच्ची से ऑटोग्राफ या फोटो खिंचवाने के लिए आतुर नजर आती। शहीद पर बनी फिल्म पर अभिनेता- निर्माता करोड़ों रुपए कमाते है। उससे मिलने के लिए यही भीड़ बेकाबू नजर आती है। मजाल इसी भीड़ ने असली शहीद के घर की तरफ रूख किया हो। शहीद की मां- पत्नी के साथ फोटो खिंचवाने के लिए लालायित नजर आती हो। हम आज तक यह नहीं समझ नहीं पाए हैं कि घर में जब मां- पत्नी- बहन भोजन खिलाती है तो खुलकर तारीफ  करने में हमें तकलीफ होती है। जब किसी बड़े रेस्टोरेंट- होटल में जाते हैं तो भोजन आने से पहले ही बड़ी शान से उसी मां- पत्नी- बहन के सामने वाह- वाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। बिल में जीएसटी- वैट बड़ी शान से देते हुए वेटर को टिप्स देने में भूल नहीं करते। कभी गौर किया घर  में बने लाजवाब व्यंजन पर कितनी बार सरप्राइज गिफ्ट दिया हो। यहीं मानसिकता पत्रकारिता में साफ तौर से नजर आ रही है। मंझले- छोटे अखबार को इस भाव से देखा जा रहा है मानो उनकी हैसियत खबर के शौकीनों से मिलने वाली विज्ञापनों से तय होती हो। ये शौकीन मानकर चलते हैं कि इन अखबारों का वजूद हमारे से तय होता  है। इसलिए अपने अंदाज से खबरें नहीं छपने पर रूठने में एक पल नहीं लगाते। हालांकि यह मानसिकता पिछले कुछ सालों में खत्म होती पत्रकारिता ओर तेजी से जन्म लेते पत्रकारों की वजह से ज्यादा पनप गई है। इसी वजह से इसकी कीमत सभी को चुकानी पड़ रही है। अब ऐसा लग रहा है कि खबरें उस बंदरियां की तरह है जिसे मदारी यानि पत्रकार उसे मजबूरी में नचवाने को मजबूर है। मदारी को पता है यह उसकी मजबूरी है  बंदरिया अपने मिजाज के खिलाफ सबकुछ करने को मजबूर है। वह नाचेगी तभी दोनो का पेट भरेगा। बंदरिया का लुप्त उठाने वाले यह भूल जाते हैं कि जिस दिन बंदरिया को अपनी आजादी मिल गई, मदारी ने उसे छोड़ दिया तो उस समय कौन नाचेगा यह बताने की जरूरत नहीं है। आजकल के मीडिया में अक्सर दो तरह का शोर सुनाई देता है। पहला यह देश का सजग प्रहरी है, चौथा स्तंभ है, दबी कुचलों की आवाज उठाता है। बेरहम ताकतों के खिलाफ खड़ा मिलता है। ऐसा कहने वालों के अनुरूप जब वह चलता हुआ नजर नहीं आता तो यही गोदी, भ्रष्ट- ब्लैकमेलर- चाटुकार मीडिया लगने लगता है। यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि हमारे देश में ऐसे कितने लोग है जो खुद में उदाहरण बनकर सामने आते हैं ओर ऐसे कितने हैं जो दूसरो के उदाहरण पर अपनी रोटियां सेंकते हैं। देश में ऐसे कितने शिक्षक- गुरु है जिसने अपनी लगन- मेहनत से अपने शिष्यों को बेहतर सफल इंसान बनाया ओर उस पर पुस्तकें लिखी हो। ऐसे कितने नेता है जिनके बच्चे सेना में हो ओर शहीदों के नाम पर राजनीति करने में गर्व महसूस करते हो। शायद ही कोई उदाहरण मिल जाए। इसलिए मौजूदा हालात में हर इंसान को अपने मूल चरित्र से ही पहचान बनानी चाहिए ना की  इधर उधर किराए पर लेकर।

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