तलाक लेने वालों को कम से कम भाजपा- जेजेपी से ही सीख लेना चाहिए, घर तो बसा रहेगा

रणघोष खास. प्रदीप नारायण


2019 के विधानसभा चुनाव को याद किजिए। एक दूसरे के कपड़े उतारने वाली भाजपा- जेजेपी ने सत्ता पर काबिज होने के लिए उन्हीं कपड़ों को पहन लिया जिस पर आपस में ही दाग लगा दिए थे। ढाई साल से साथ रह रहे ये दल अब हरियाणा में होने जा रहे नगर निकाय चुनाव में अलग अलग नजर आएंगे। ऐसे में सवाल उठता है कि दोनों दलों के नेता एवं प्रत्याशी इन्हीं कपड़ों में ही जनता के बीच जाएंगे या जाति- धर्म या व्यक्ति विशेष के  नए डिजाइन के साथ नजर आएंगे यह देखने वाली बात होगी। इतना जरूर है कि छोटे छोटे विवादों व वजहों के चलते तलाक लेने वाले दंपतियों को कम से कम भाजपा- जेजेपी से ही सीख लेना चाहिए। कम से कम घर तो बसा रहेगा।

दरअसल राजनीति में गठबंधन के धर्म को उस नजरिए से देखना चाहिए जिस तरह आसमान में उड़ता तोता भूख के चलते पिंजरे में आ जाता है। उसके बाद वह वहीं भाषा बोलता है जिसकी मालिक ट्रेनिंग देता है। सत्ता का गठबंधन एक तरह का पिजंरा ही होता है जिसकी आजादी दिलों दिमाग में उठने वाली बैचेनी से नहीं पिंजरे में तोते को पहुंचने वाली खुराक से तय होती है। किसी ने सही कहा है  बड़ी सस्ती में लूट लेती हैं दुनिया उसे जिसे खुद की कीमत का अंदाजा नही होता। चुनाव में  जनता के साथ एक बार फिर वही होने जा रहा है।  नगर निकाय चुनाव का आकार बेशक छोटा है लेकिन इसके परिणाम गठबंधन के धर्म को  गहरे जख्म देकर जाएंगे इसमें को दो राय नहीं।  जेजेपी पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतर चुकी है। उसके पास जो भी टीम है उसमें उत्साह इसलिए है कि वह सत्ता में भागीदार है उसके पास खोने को इतना नहीं है जितना भाजपा को कीमत चुकानी पड़ सकती है। जेजेपी में चौटाला बंधुओं का वन मैन शो है इसलिए हाजिरी एक ही जगह लगती है भाजपा में कई तरह के दरबार है। एक छूट गया तो मनोकामना अधूरी रहने का डर लगा रहता है। चुनाव छोटा हो या बड़ा जनता भी खुद को ईमानदार, भोली व ईमानदार घोेषित ना करें। वह भी चुनाव में उतनी राजनीति करती हैं जितनी उम्मीदवार के दिमाग से चलती है। इसलिए वह फ्री, जाति- धर्म के नाम पर कुछ समय के लिए अपना संतुलन खो बैठती है। चुनाव के समय रिपोर्ट कार्ड तैयार कर सलीके से ईमानदार सवाल करने की बजाए वह अपने निजी एजेंडों को किसी ना किसी रास्ते पूरा करने की जुगत में ज्यादा नजर आती  है। जो शराब पांच साल रूटीन में नहीं बिकती उससे ज्यादा चुनाव में बह जाती है। जहां तक मीडिया का सवाल है। चुनाव में उम्मीदवारों को विज्ञापन के खर्चें से बचाने के लिए पैकेज का फार्मूला चलता है।  जितना मंहगा पैकेज होगा गधा भी धोड़े की रेस में जीत का दावेदार बताया जाएगा। यह माया का कमाल है जिसकी स्याही से मीडिया अपना चेहरा और चरित्र बदलता रहता है। इसमें बुरा भी नहीं है जो जनता 15 रुपए का  अखबार पांच रुपए में खरीदती है। इसी पांच रुपए में अखबार घर पहुंचाने के लिए  30 से 40 प्रतिशत कमीशन एजेंट व हॉकर को अलग देना होता है। इतना ही नहीं यहीं पाठक बाल्टी- मग्गे की स्कीम के लालच में झट अखबार बदल देते हैं। हलकी सी कीमत बढ़ते ही अखबार को बंद करने की धमकी  दे डालते  है। यही पाठक मीडिया को बिका हुआ बताते हैं। इन पाठकों को कम से कम  पाकिस्तान से ही सीखना चाहिए जहां अखबार की कीमत 25 रुपए है। जिस दिन देश का पाठक अखबार की कुल लागत पर थोड़ी सी बढ़ी कीमत पर उसे खरीदना शुरू कर देगा और अखबार मालिक विज्ञापन के जाल से खुद को मुक्त कर लेगा उस दिन देश का मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने का असली अधिकार हासिल कर लेगा। हालांकि यह सब मुंगेरी लाल के सपने देखना जैसा है। कुल मिलाकर हरियाणा में होने जो रहे नगर निकाय चुनाव की तस्वीर ठीक उसी तरह नजर आएगी जिस तरह साल भर में झगड़ा करने वाले, परिजनों की पंचायत बुलाने वाले दंपति में  पत्नी करवा चौथ पर्व आने पर पति की लंबी उम्र की कामना के लिए व्रत रखती है और पति उसके लिए सरप्राइज गिफ्ट लेकर आता है। देश में राजनीतिक दलों का गठबंधन भी इसी दंपति की मिजाज की तरह है।

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