पढ़िए छोटे शहरों में खुले अस्पतालों की कहानियां।

2 से 4 लाख मंथली किराया, फाइव स्टार बनाने के नाम पर करोडों खर्च, यहां रहते हैं धरती के भगवान


पिछले 40 दिनों में सरकारी रिकार्ड के हिसाब से आज तक 265 से ज्यादा लोग कोरोना की वजह से मर चुके हैं। यह वो संख्या है जिसकी अस्पताल में हाजिरी है। जमीनी हकीकत पर जाए तो यह संख्या कई गुणा है। गांवों में ऐसे बहुत से केस है जो महंगा इलाज के डर से नहीं आ पाए। इसके लिए हम किसे जिम्मेदार मानेंगे।   

– सैकड़ों- हजारों परिवार ऐसे हैं जो आज तक इलाज के नाम पर लिए कर्ज को नहीं चुका पाए हैं

– कोरोना काल में जिस कदर मरीजों को इलाज के नाम पर लूटा गया उसे देख मौत भी कुछ समय के लिए सहम गईं।

– नकली दवाइयां- इंजेक्शन का कारोबार करने वालों को पकड़ने के लिए डॉक्टर्स आगे क्यों नहीं आते हैं जबकि उन्हें सबकुछ पता होता है।


रणघोष खास.  प्रदीप नारायण


वह अस्पताल हरगिज नहीं है जिसकी बनावट पांच सितारा होटल जैसी नहीं हो। गेट पर खड़ा सुरक्षा गार्ड तड़फड़ाते मरीज को सलामी नहीं देता हो। अंदर प्रवेश करते ही रिस्पेनिस्ट के आस पास बैठी टीम मरीज के साथ आए परिजनों का इंटरव्यू अंदाज में फाइल तैयार नहीं करती हो। मौके पर यह नहीं बताया गया हो इलाज से पहले जितनी मोटी रकम एडवांस के तौर पर जमा होगी मौत उतने ही कदम पीछे कर लेगी। गांव- शहर के कच्चे- पक्के घरों से आए मरीज के परिजन अस्पताल की चकाचौंध में सबकुछ भूल जाते हैं कि वे कहां आ गए। शुरू में उन्हें अच्छा लगता है वे सही जगह आए हैं। उनका रामू भी अस्पताल की तरह चमकता- दमकता ठीक होकर बाहर आ जाएगा। इसलिए वे बार बार बिचौलिए से संपर्क करते रहते हैं जिनके भरोसे वे उसे यहां लेकर आए थे। इसी दरम्यान  पांच-दस कर्मचारियों से घिरे डॉक्टर को देखकर वे हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं। डॉक्टर्स की उन पर नजरें पड़ गई और मुस्करा कर नमस्कार ले ली तो वे समझ जाते हैं कि अब उनके रामू को कुछ नहीं होगा। धरती के भगवान प्रसन्न है। एक- दो दिन बाद सालों से जोड़ी जमा पूंजी इलाज के नाम पर खर्च होने पर बिचौलिया उसे इलाज का बिल चुकाने के तरीके बताता है। मसलन जमीन का टुकड़ा हो तो ठीक नहीं तो गहने बेच दो। वो भी नहीं तो घर गिरवी रखकर साहूकार से ब्याज लो। इसके अलावा कोई चारा नहीं..।

यह किसी सीरियल या फिल्म की स्क्रिप्ट नहीं है। एक ऐसी हकीकत है जिस पर से पर्दा पूरी तरह से हट चुका है। सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था सड़कर गल चुकी है। जिससे जन्में इन प्राइवेट अस्पतालों में मरीज के परिजनों से इलाज से ज्यादा भर्ती रहने के एक एक पल की ज्यादा कीमत वसूली जाती है। मरीज जिंदा आए या मुर्दा उसका बिल में दर्ज खर्चें से कोई सरोकार नहीं है। रेवाड़ी जैसे छोटे से शहर में खुले अस्पतालों की रिपोर्ट से देश में बेहतर इलाज के नाम पर विशालकाय दैत्य की तरह फैल चुके इस बाजार को आसानी से समझा जा सकता है। जिस 5 किमी वाले रेवाड़ी शहर के सरकुलर रोड पर 100 से ज्यादा छोटे- बड़े क्लीनिक- अस्पताल खुल चुके हो। अंदाजा लगा लिजिए इस शहर के शरीर की क्या हालत होगी।   आधे से ज्यादा अस्पताल ऐसे हैं जिनका किराया 2 से 4 लाख रुपए प्रति माह है। अस्पताल की डिजाइन एवं डेकोरेशन पर सबसे ज्यादा खर्च इसलिए किया जाता है कि मरीज के परिजन इस चकौचौंध को देखकर बिल नहीं चुकाने की हिम्मत नहीं जुटा सके। लगभग 100 बेड के अस्पताल को बनाने में करीब 3 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। हर दो-तीन माह में एक नया अस्पताल खुल रहा है। शहर एवं आस पास प्रोपटी खरीद-बेचने वालों डीलर्स के सबसे ज्यादा क्लाइंटस डॉक्टर्स ही है। यहां आधे से ज्यादा देश के अलग अलग राज्यों से आए डॉक्टर्स अपनी सेवाएं दे रहे हैं। शुरूआत में वे किसी अस्पताल में काम करते हैं उसके बाद चकाचौंध करने वाली इमारत खड़ी कर देते हैं जो रात की रोशनी में किसी सुदंर महल से कम नजर नहीं आती। इन अस्पतालों में मरीजों के परिजनों के हाथ में जब बिल आता है तो उन्हें समझ में आता है कि करोड़ों रुपए की लागत से बने इन अस्पतालों में सेल्यूट मारने वाले सुरक्षा गार्ड से लेकर, तमाम तरह की छोटी छोटी सुविधाएं मसलन, ठंडा पानी, हवा लेना भी बिल के खर्चें में शामिल है। इसी दौरान अगर गलती से किसी ने बनी कैंटीन में आर्डर दे दिया तो ना होते हुए भी उसे अपना बीपी- शुगर चैक कराना पड़ जाता है। भर्ती करते समय इमरजेंसी यानि डबल कमाई शब्द का इस्तेमाल हो गया तो यह समझ लिजिए आप पूरी तरह उनकी गिरफ्त में आ चुके हैं। कोरोना काल में ऐसे परिवार भी है जो अब जिंदा लाश के अलावा कुछ नहीं है। कहने को किसी का बेटा, पति, पिता, मां- पत्नी, बेटी कोरोना की चपेट में आकर चल बसे। असल में इस वायरस की आड़ लेकर मानवता- इंसानियत की भी हत्या हुई है। इसलिए तो जिसने एक- एक रुपया बेटी की शादी में जुटाए थे वह कोरोना के नाम पर अस्पतालों ने बेदर्दी से हजम कर लिए। एक दिन में बेड दिलाने के नाम पर 50 हजार से लेकर एक लाख रुपए का बिल सरासर खेल नही तो क्या है। आधे से ज्यादा डॉक्टरों के दिलो दिमाग में एक ऐसी हवस का जन्म हो चुका है जो एक दूसरे से ज्यादा कमाई करने की होड़ में अस्पताल को कसाईघर बनाने में भी पीछे नहीं हट रहे हैं। सोचिए कोरोना में वेँटीलेटर एवं आक्सीजन के नाम पर क्या कुछ नहीं हुआ। मुश्किल से 5 प्रतिशत मरीजों की वापसी नहीं हुई उल्टा डॉक्टर्स इस तरह मालामाल हो गए मानो कोरोना उनके लिए वायरस नहीं धन कुबेर बनकर आया हो। क्या ऐसे हालातों में ऐसा कोई डॉक्टर्स है जो खुलकर सामने आकर यह कह सके कि उनकी लिखी दवाइयां हर मेडिकल स्टोर पर मिल जाती है। क्या ऐसा कोई डॉक्टर है जो यह दावा कर सके कि उसके यहां आने वाला मरीज दुआएं देकर जाता है। क्या इस क्षेत्र के इतिहास में आज तक ऐसा कोई डॉक्टर्स नहीं जन्मा जिसकी मिशाल देकर हर साल उनकी जयंती या पुण्य तिथि के बहाने एक उम्मीद को जिंदा रखे। ऐसा अभी तक नहीं हो पाए तो यह सब करना होगा।   हम सभी को ऐसे डाक्टर्स को खोजकर सामने लाने होगे। ऐसा कर पाए तो समझ  लिजिए मानवता- इंसानियत ने धड़कना बंद नहीं किया है, सांसे चल रही हैं। 

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