मीडिया में 90 फीसदी खबरें ब्यूटी पार्लर में तैयार होकर आती हैं, संभलकर भरोसा करिए..

Danke Ki Chot par logo रणघोष खास. प्रदीप नारायण


मीडिया देश का चौथा स्तंभ, आमजन की आवाज, लोकतंत्र का सजग प्रहरी ना जाने कितने अंलकारों की चासनी में डूबी जलेबी की तरह इतराते हुए सुबह शाम  चिल्लाता रहता है। गलत भी नही है लेकिन मौजूदा हालातों में इसे एकदम सही भी नहीं कह सकते। 90 प्रतिशत से ज्यादा खबरें ब्यूटी पार्लर में तैयार होकर मीडिया कार्यालयों की मेल पर हर रोज ताबड़तोड़ तरीके से हाजिरी लगाती रहती हैं। यहां ब्यूटी पार्लर से मतलब अपनी मर्जी से कुछ भी लिखों, कुछ भी छपवाओ। दावों में छिपे झूठ को इस अंदाज में पेश करों कि सच भी उसे देखकर शरमा जाए। पत्रकारों से संबंध अच्छे है तो कवरेज शानदार मिलेगी। नहीं है शायद झटका लग सकता है। खबर भेजने वाला  विज्ञापनदाता है तो कोई टेंशन नहीं। रिपोर्टर खुद ही खबर को इतनी खुबसूरत बना देगा कि छपने के बाद विज्ञापन पार्टी ही अपनी असलियत भूल जाएगी। ऐसा करना अखबारों में काम करने वालों की मजबूरी है। वे वेतनभोगी है। हर रोज तय किए गए टारगेट को पूरा करना है। अखबारों के बड़े मालिकों के कारोबार इतने ज्यादा है कि अखबार या  चैनल चलाना उनके लिए एक हथियार की तरह है जिसका वो अलग अलग तौर तरीकों से इस्तेमाल करते रहते हैं।  4-10-14 पेज का अखबार एक तरह से प्रोडेक्ट है उसे बाजार में ज्यादा से ज्यादा बेचना है। लोकल पुल आउट पेज की हालत यह है कि पत्रकार को सर्दी आ गई गर्मी चली गईं, बरसात में हरियाली नजर आएगी जैसी खबरें बनानी पड़ रही हैं। अखबारों में बने रहने के शौकीन यह अच्छी तरह से जान चुके हैं कि उन्हें रोज किस तौर तरीकों से छपना है। खासतौर से छोटे- बड़े नेताओं को पत्रकार ही ट्रेनिंग देते हैं कि ऐसा करने या बोलने से सुर्खियों में बने रहोंगे। स्कूल में शिक्षक ने बेहतर पढ़ाया, पर्यावरण दिवस पर वन विभाग, जागरूक नागरिक ने पेड़ लगाया, योग दिवस पर योग किया, मदर- फादर डे पर माता- पिता याद आए। वेलेंटाइन डे पर प्रेम का अहसास जैसी खबरें अखबार- चैनल पर आते ही खास हो जाती हैं। इसलिए अखबारों व चैनलों पर शानदार बैकग्रांउड म्यूजिक के साथ दौड़ती खबरों को गौर से देखिए। ऐसा लगेगा इन्होंने सामने आकर पत्रकारों को बचा लिया हो। अगर किसी खबर को जगह नहीं मिल पाई। गलती से वह विज्ञापनदाता  निकला तो समझ लिजिए  पत्रकार की पत्रकारिता पर सवाल खड़े हो जाएंगे। ऐसे में मीडिया पर लिखी पुस्तकों में समाचार की परिभाषा तय करने के लिए उस उदाहरण को भी बदलने का समय आ  गया है। जिसका हवाला देकर  यह बताया जाता है कि कुत्ता आदमी को काटे खबर नहीं है, काटना कुत्ते की प्रवृति है। आदमी कुत्ते को काटे तो खबर है। वजह यह इंसानी व्यवहार से एकदम विपरित है। लेकिन हो रहा एकदम उलटा है। इन दिनों कुत्ता गलती से आदमी को सुंघ ले या पूंछ हिला दे वही खबर बन जाती है। इसके लिए किसी सूरत में पत्रकार दोषी नहीं है। वह अपने वजूद को बचाए रखने ओर भरोसे को जिंदा रखने के लिए सजी धजी खबरों के बीच एकाध बार ऐसी रिपोर्टिंग करता रहता है जिससे पत्रकारिता के जिंदा रहने के सबूत मिल जाते हैं। अखबार के मालिकों का मानना  जितनी ज्यादा खबरों की संख्या होगी बाजार पर कब्जा भी मजबूत नजर आएगा। इसलिए देखा होगा जो सरकारी प्रेस नोट है तो वह डीपीआरओ के माध्यम से सरकार एवं संबंधित अधिकारियों के पास जाकर हाजिरी लगाते हैं। नेताजी की खबरें  कार्यकर्ताओं एवं आला कमान के पास उसके कद को तय करती नजर आती है।  सामाजिक संगठनों की खबरें उनकी  फाइलों में सबूत बन जाती है। जिनका खबरों में नाम आ गया समझ लिजिए उसने ही उस दिन काम किया है।  कुछ खबरें विवादों के रास्ते आती हैं जिसमें अधिकांश का सच कभी सामने नहीं आता। कुल मिलाकर आप यह विश्वास जताए मीडिया में नजर आ रही, दौड़ रही खबरें सच की स्हाई में डूबकी लगाकर आ रही है। वह सरासर धोखा होगा।  हम मीडिया वाले ईमानदारी से इस बात को लिखकर  स्वीकार कर रहे हैं। सही मायनों में यही हमारे जिंदा रहने का सबसे बड़ा सबूत है।

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