यह सारा खेल कमीशनखोरी का है, ऐसा नहीं है तो पूरे हरियाणा से रेवाड़ी में ही यह शोर क्यों मच रहा है

– जब तक ईमानदारी से कमीशन नहीं बंटेगा शहर अंधेरे में रहेगा  

– मीडिया में खबरें मैनेज करके डाल देते हैं खामियों पर पर्दा

– पीडब्ल्यूडी विभाग के अधिकारी कर गए अपना खेल, नप हाथ मलती रह गई

– जनप्रतिनिधियों की आपसी लड़ाई का भी उठा रहे फायदा


रणघोष खास. सुभाष चौधरी


सम्मानित, केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह, उपायुक्त यशेंद्र सिंह जी। नगर परिषद रेवाड़ी एवं लोक निर्माण विभाग की इलैक्ट्रानिक विंग के बीच शहर में स्ट्रीट लाइटों की जिम्मेदारी को लेकर जो विवाद चल रहा है उसकी असली जड़ कमीशनखोरी है। अगर ऐसा नहीं है तो पूरे हरियाणा में केवल रेवाड़ी में ही यह शोर क्यों मच रहा है। क्या रेवाड़ी शहर की बनावट, नियम कायदे एवं काम करने के तौर तरीके अन्य जिलों से अलग है। एक साल से अधिक समय से विवाद के नाम पर यह ड्रामा चल रहा है। नप अधिकारी सड़कों पर अतिक्रमण के नाम पर साधारण दुकानदारों पर 5 हजार का चालान करते समय देरी नहीं करते। शहर की सड़कें अंधेरे में डूबी हुई हैं उन जिम्मेदार अधिकारियों एवं कर्मचारियों के चालान कौन काटेगा। इतना हीं नहीं आवारा पशुओं से 5 से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं, टूटी सड़कों से जाने जा रही हैं। इन जिम्मेदार महकमों की कुर्सी पर बैठने वालों पर आखिर एक्शन कब होगा। किसी के पास कोई जवाब इसलिए नहीं है की आमजन के लिए कानून ओर नियम बने हुए हैं। सोचिए चंडीगढ़ देश के सबसे खुबसूरत शहरों में आता है। छोटे- बड़े शहर ऐसा क्यों नहीं बन सकते जबकि सभी के लिए योजनाएं वं कानून समान है। अधिकारी भी वहीं है।

आइए स्ट्रीट लाइटों के इस खेल को समझते हैं

पिछले विधानसभा चुनाव से पहले 2018-19 में सीएम की घोषणा में हरियाणा से अकेले रेवाड़ी शहर को शामिल किया था जिसमें शहर के सार्वजनिक स्थानों पर एलईडी लाइटें लगनी थी। तीन से चार करोड़ रुपए का बजट भी आ गया ओर तीन से चार करोड़ रुपए टेंडर भी छूट गए। तीन ठेकेदारों को यह काम दिया गया। 2020 के शुरूआती महीनें में यह कार्य भी पूरा कर लिया गया। टेंडर देते समय लाइटों की मरम्मत एवं ठीक करने का जिम्मा पांच साल की अवधि तक ठेकेदारों का होता है। इस दौरान लाइटों को लेकर अनेक तरह की शिकायतें नप के पास आती रही लेकिन कार्रवाई इसलिए नहीं हुई कि ठेकेदार का कमीशन अपना असर डाल रहा था। नतीजा आज भी हर वार्ड में लाइटें खराब हैं लेकिन जवाबदेही तय होने के बावजूद ठेकेदारों पर कार्रवाई नहीं हो रही हैं। यहां कुछ पार्षद भी अपना खेल कर जाते हैं। तय शर्तों के बावजूद ठेकेदार कम कर्मचारी रखते हैं जिसकी वजह से कई बार दिन भी लाइटें जलती रहती हैं। सबकुछ इस ढंग से मैनेज किया जाता है कि जनता शोर मचाकर चुप बैठ जाती हैं और अधिकारी- कर्मचारी किसी तरह ठेकेदार का बचाव करने में जुटे रहते हैं। अगर ऐसा नहीं है तो खराब लाइटें तुरंत प्रभाव से ठीक क्यों नहीं होती जबकि टेंडर देते समय इन शर्तों का पालन करना अनिवार्य है।

 पीडब्ल्यूडी विभाग के अधिकारी कर गए अपना खेल, नप हाथ मलती रह गई

शहर छह सड़कों  जिसमें सरकुलर रोड, गढी बोलनी, महेंद्रगढ़, नारनौल, भाड़ावास ओर बेरली रोड शामिल है। इन पर लगी 375 बड़ी स्ट्रीट लाइटों को लेकर नगर परिषद एवं पीडब्लयूडी विभाग के अधिकारी दिखाने के नाम पर नुरा कुश्ती लड़ रहे हैं। असल में ठेकेदार को बचाने के लिए यह ड्रामा किया जा रहा है। अगर ऐसा नहीं है तो खराब लाइटों को ठेकेदार ने निर्धारित समय अवधि में ठीक क्यों नहीं किया। 2017-18 में ये लाइटें करीब 70 लाख रुपए के बजट में लगी थी। कमाल की बात देखिए इन लाइटों के बिजली का कनेक्शन नप के मीटर से जुड़ा हुआ है। कायदे से नप को सौंपने से पहले पीडब्लयूडी विभाग को इन लाइटों के लिए अलग से बिजली का कनेक्शन लेना चाहिए था। एक तय समय बाद सौंपते समय नप की जिम्मेदारी में बिजली बिल शुरू होना था। यहां ऐसा नहीं किया गया। पीडब्ल्यूडी विभाग के अधिकारी दावा कर रहे हैं कि उनके पास नप की एनओसी है जबकि सभी सड़कों पर लगी लाइटों का रिकार्ड उनके पास नहीं है।  ऐसा नहीं है कि ऐसा पहली बार हो रहा है। कांग्रेस हुड्‌डा सरकार में झज्जर फ्लाईओवर पर पीडब्ल्यूडी विभाग ने बड़ी लाइटें लगाकर तत्कालीन सीएम से उदघाटन करा लिया था। कुछ दिन बाद बिजली बिल नहीं भरने पर कनेक्शन काट दिया गया ओर कई सालों तक लाइटें बंद होकर खराब हो गईं। 2016 में सीएम विंडो समेत खुले दरबार में हल्ला मचा तो दोनो महकमों के अधिकारियों ने एस्टीमेट बनाकर लाइटों को किसी तरह चालू करवाया। इसी तरह का विवाद में भी यही खेल चल रहा है। पीडब्ल्यूडी विभाग के अधिकारी कमीशनखोरी के चलते ठेकेदार को खुद  की जवाबदेही बचाने में लगे हुए हैं। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो ठेकेदार उनकी पोल सकता है। दूसरा अधिकारियों के अचानक बदलने से भी ठेकेदार की कमाई का बजट बिगड़ जाता है। नए अधिकारी को मैनेज करने लिए उसे कागजों में मरम्मत के नाम पर फर्जीवाड़ा करना पड़ता है। इसी वजह से लाइटें हकीकत में अंधेरे में नजर आती हैं लेकिन कागजों में जगमग करती है।

  जब तक ईमानदारी से कमीशन नहीं बंटेगा शहर अंधेरे में रहेगा  

रणघोष ने नप के अधिकारियों एवं कर्मचारियों से ऑफ दा रिकार्ड का भरोसा देकर स्ट्रीट लाइटों को लेकर जो जानकारी जुटाई है। उससे साफ जाहिर हो रहा है कि दोनों महकमों में बैठे अधिकारियों व कर्मचारियों के बीच ठेकेदारों द्वारा दिए गए या दिए जाने वाले मान्यता प्राप्त कमीशन को लेकर सहमति नहीं बनी है। इसलिए बड़ी चालाकी से खर्चें के नाम पर एक दूसरे पर जिम्मेदारी डाली जा रही है। अधिकारी इस तरह खुद को पेश करने का नाटक कर रहे हैं मानो लाइटों पर खर्च होने वाली राशि उनके वेतन से दी जानी है। विवाद की दूसरी मुख्य वजह अचानक अधिकारियों के तबादला होने पर ठेकेदार के लिए नए अधिकारी के लिए  कमीशन जुटाना भारी हो जाता है। नए अधिकारी इसलिए सिरदर्दी नहीं ले रहे कि वे बेवजह यह टेंशन क्यों लें। सरकारी कामकाज की यह संस्कृति कई सालों से चलती आ रही है। इसलिए सरकार में बैठे मंत्री- प्रशासनिक अधिकारी जानते हुए भी कुछ दिन सक्रियता दिखाकर चुप हो जाते हैं। इतना ही नहीं चुने गए पार्षद में अधिकांश भी मौके की  तलाश में रहते हैं। इसलिए स्ट्रीट लाइट का मसला पूरे शहर का है लेकिन आधे पार्षद चुप है ओर कुछ शोर मचा रहे हैं। भ्रष्टाचार के मामले तभी उजागर होते हैं जब कमीशनखोरी ऊपर से नीचे तक ईमानदारी से नहीं पहुंच पाती है। इस मामले में असली गड़बड़ी यहीं हुई है। इसलिए बजाय किसी की जवाबदेही तय कर कार्रवाई करने के लुका- छिपी का खेल खेला जा रहा है।

 मीडिया में खबरें मैनेज करके डाल देते हैं खामियों पर पर्दा

मीडिया में खबरें लगना अब आसान हो गई हैं। हालात यह है कि स्कूली स्तर पर गाय को लेकर हो होने वाली निबंध प्रतियोगिता भी खबरों की सुर्खियां बनती हैं। अखबार वालों की तादाद इतनी ज्यादा है कि अगर कोई एक नहीं प्रकाशित करेगा तो दूसरा उसे छाप देगा। इसलिए मतलब वाली खबरों को अपनी ताकत बनाकर संबंधित अधिकारियों के पास सबूत के तोर पर भेज दिया जाता है। दूसरा अधिकारी भी फोन पर या मिलकर पत्रकारों को आसानी से मैनेज कर अपने हिसाब से खबरों को प्रकाशित कराने में एक्सपर्ट हो गए हैं। इसलिए किसी भी बड़े इश्यू पर जनता को शांत करने के लिए मीडिया का चालाकी से इस्तेमाल कर लिया जाता है। सोशल मीडिया के बढ़तते प्रभाव के कारण पत्रकारों के नाम पर एक ऐसी जमात खड़ी हो गई हैं जिसका जब चाहे किसी भी तरह आसानी से इस्तेमाल कर सकते है। प्रतिष्ठित कहलाए जाने वाले अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों में कुछ को छोड़कर अधिकांश अलग अलग वजहों से मैनेज हो जाते हैं। इसलिए कई जिम्मेदार प्लेटफार्म पर प्रकाशित होने वाली खबरों में शहर को इतना सुंदर दिखाया जाता है मानो सबकुछ बेहतर हो रहा है।

 जनप्रतिनिधियों की आपसी लड़ाई का भी उठा रहे फायदा

यह सत्ता में बैठे जनप्रतिनिधियों की आपसी चौधराहट की लड़ाई का भी अधिकारी बड़ी चालाकी  से फायदा उठाते हैं। जिस अधिकारी का मिजाज किसी नेता से नहीं मिलता वह उसके विरोधी के पास दंडवत हो जाता है। नतीजा जनप्रतिनिधि अपने अधिकारियों के बचाव की वकालत करते रहते हैं जबकि असलियत कुछ ओर होती हैं। दूसरा नेताओं के समर्थकों के भी अपने निजी काम होते हैं ऐसे में अधिकारियों से सिस्टम बनाकर ही प्रक्रिया को बढ़ाया जाता है। उसके बदले अधिकारी अपनी कमीशनखोरी के खेल को पूरा कर जाते हैं। यह सिस्टम का इतना बड़ा मकड़जाल है जिसे तोड़ने के लिए किसी के लिए आसान नहीं है।

 अधिकारियों से बात करना उन्हें अलर्ट करना है

रणघोष टीम आमतौर पर इस तरह के मसलों पर अधिकारियों से पक्ष लेने के लिए बातचीत इसलिए नहीं करती क्योंकि उन्हें सबकुछ पहले से पता होता है। सूचना से उन्हें संभलने का पूरा मौका मिल जाता है। हकीकत यह भी है कि प्रकाशित होने वाली खबरों से अधिकारी एवं कुछ नेता कार्रवाई करने या नहीं करने के नाम पर अपना खेल भी कर जाते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *