रणघोष का सादर अनुरोध:

प्रत्येक माता– पिता को यह कहानी जरूर पढ़नी ओर पढ़ानी चाहिए 


आशाकिरण बारलाः 17 साल की उम्र में 11 नेशनल और दो इंटरनेशनल गोल्ड मेडल जीतने वाली गोल्डन गर्ल


 रणघोष खास. मोहम्मद सरताज आलम, बीबीसी से


आशाकिरण बारला“सिर्फ़ सत्रह साल की उम्र, ग्यारह नेशनल और दो इंटरनेशनल गोल्ड पर कब्ज़ा, एथलीट आशाकिरण बारला की ये कामयाबी 2024 ओलंपिक में गोल्ड हासिल करने के लिए भारत की उम्मीद बन गई है.” ये कहते हुए आशाकिरण के कोच आशु भाटिया चिंतित हो गए.वे कहते हैं, “मैंने सत्रह ट्राइबल बच्चों के लिए एथलेटिक्स की कोचिंग और उनके लिए लॉजिंग व फुडिंग की व्यवस्था मुफ़्त की. इस व्यवस्था में रहकर आशाकिरण ने पिछले एक साल में ग्यारह गोल्ड हासिल किए. लेकिन ओलंपिक खेलों के लिए जो मूलभूत सुविधाएं आशाकिरण को मिलनी चाहिए वह मैं नहीं दे पा रहा हूं.”आशाकिरण बोकारो ज़िले के ‘बोकारो थर्मल’ टाउन में स्थित ‘भाटिया एथलेटिक्स एकेडमी’ के हॉस्टल में रह कर प्रैक्टिस करती हैं. इस निजी एकेडमी का संचालन ‘भाटिया एथलेटिक्स एकेडमी ट्रस्ट’ करती है. जिसके सचिव आशाकिरण के कोच आशु भाटिया हैं.आशाकिरण रांची से 100 किलोमीटर और गुमला शहर से 70 किलोमीटर दूर पहाड़ों की तलहटी में बसे नवाडिह गांव की रहने वाली हैं.उनके घर से आधे किलोमीटर की दूरी पर एक पक्की लेकिन सुनसान सड़क कामडारा ब्लॉक और महूगांव से गुमला की तरफ़ गई है. लेकिन जंगल, नदी व पहाड़ी से घिरे इस गांव के आसपास कोई आबादी नहीं है. स्थानीय लोगों का कहना है कि गांव के आसपास का क्षेत्र नक्सल प्रभावित है. संभवतः इसलिए गांव के आसपास कोई मूलभूत सुविधा भी नहीं है.नवाडिह गांव के लोगों को इलाज के लिए चार किलोमीटर दूर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र रेंडवा पंचायत जाना पड़ता है. जबकि रात में तबीयत ख़राब होने पर लोगों को 18 किलोमीटर दूर कामाडारा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र जाना पड़ता है.

गांव में किसी के पास चार पहिया वाहन नहीं है और केवल छह परिवारों के पास बाइक हैं.22 घरों के इस गांव में से सिर्फ़ दो मकान पक्की ईंट से बने हैं. बाकी घरों की दीवारें मिट्टी और छतें खपरैल से बनी हैं.आशाकिरण की मां रोज़निया आईंद बारलाअपने घर की दीवारों पर उभरती दरारों की तरफ़ देखते हुए मायूसी के साथ कहती हैं कि “इन दीवारों की ख़स्ता हालत देखिए, खपरैल से बनी घर की छत भी अब टूट रही है. लेकिन हम आज भी असहाय हैं, जबकि बेटी देश-दुनिया में गांव का नाम रौशन कर रही है.”नवाडिह एक ट्राइबल गांव है. यहां जीविका चलाने के लिए नवाडिह के बुज़ुर्ग और महिलाएं दूरदराज़ के गांव में खेतों में काम करने जाते हैं.

आशाकिरण की मां रोज़निया के अनुसार आसपास के गांवों में धान की फ़सल होती है, जिसकी बुआई-कटाई के रोज़ सौ रुपये मेहनताना मिलते हैं.रोज़निया लाचार स्वर में पूछती हैं, “आप ही बताएं सौ रुपये में क्या होता है? विधवा पेंशन के एक हज़ार रुपये प्रति माह मिलते हैं. लेकिन इतने में सात लोगों का परिवार कैसे चलेगा?”

पिता की कैंसर से हो चुकी है मौत

आशाकिरण बारला चार बहनें व दो भाई हैं. पिता विलियम्स बारला की नौ साल पहले कैंसर से मौत हो गई थी.आशाकिरण की छोटी बहन प्रीति बारला कहती हैं, “जब पापा जीवित थे तब हालात आज से बेहतर थे. आज जब खेतों में काम मिलता है तब हम लोगों को दो वक़्त का भोजन मिल जाता है, लेकिन कभी कभी तो दिन में एक बार ही खाना नसीब होता है.”आशाकिरण के बड़े भाई आशीष बारला के अनुसार राशन कार्ड पर चावल और गेहूं तो मिलता है. लेकिन पंद्रह दिनों तक ही चलता है.

गांव में नहीं है पानी की व्यवस्था

नवाडिह गांव में पानी की कोई व्यवस्था नहीं है. गांव एक किलोमीटर दूर मौजूद एक कुएं पर निर्भर है.

लोग रोज़ इसी कुएं से पीने का पानी अपने सिर पर ढोकर घरों तक लाते हैं.आशीष बताते हैं, “नवाडिह गांव में कुछ शौचालय सरकार ने निर्मित तो किए हैं लेकिन कोई भी इस्तेमाल के लायक नहीं हैं.”

गांव में नहीं है स्कूल

आशाकिरण के गांव में पहले एक प्राथमिक विद्यालय था. जिसके एकमात्र शिक्षक उनके पिता विलियम्स बारला हुआ करते थे. गांव में उनके पिता की गिनती सबसे अधिक पढ़े लिखों में होती थी.आशीष बारला के अनुसार उनके पिता ने स्नातक और फिर बीएड किया था.वे कहते हैं, “पापा बतौर पारा शिक्षक गांव के प्राथमिक स्कूल में पढ़ाते थे. लेकिन उन‍की मौत के बाद से स्कूल भी बंद है. तब स्कूल में पचास बच्चे पढ़ते थे.”रोज़निया की सबसे छोटी बेटी और बेटा सातवीं और पांचवीं क्लास में पढ़ते हैं. गांव में स्कूल नहीं है लिहाजा दोनों को सात किलोमीटर दूर महुगांव में पढ़ने जाना पड़ता है.आशीष कहते हैं, “2013 में मैं 9वीं कक्षा में था लेकिन पिताजी की मौत के बाद परिवार चलाने के लिए मुझे पढ़ाई छोड़नी पड़ी.”आशीष के अनुसार गांव के आसपास शहर न होने के कारण मज़दूरी का काम न के बराबर मिलता है. इस साल उन्हें महाराष्ट्र में मज़दूरी का काम मिला है.वे बताते हैं, “वहां ब्रिज निर्माण में चार महीने काम करने से क़रीब 12,000 रुपये की कमाई घर लाए.”

घर में बिजली और टीवी आया

कुवैत में आयोजित एशियन यूथ चैंपियनशिप में आशाकिरण बारला ने 800 मीटर रेस में स्वर्ण पदक जीता. लेकिन उनके घर पर बिजली और मोबाइल न होने की वजह से इसकी ख़बर परिवार को दो दिनों बाद मिली.

आशाकिरण कहती हैं, “बिजली कनेक्शन के लिए मां विभागीय अधिकारियों के सामने 2015 से ही गुहार लगा रही थीं. लेकिन ये अब जाकर 2022 में मिली है.”बिजली का कनेक्शन मिलने के बाद गुमला ज़िला प्रशासन की पहल पर आशाकिरण के परिवार को टीवी सेट भी उपलब्ध कराया गया.आशीष कहते हैं, “टीवी लगने से गांव के सभी लोगों ने पहली बार आशाकिरण को ट्रैक पर दौड़ते देखा.”वे कहते हैं, “टीवी से सभी खुश हैं, लेकिन इससे परिवार तो नहीं चलता इसलिए और भी सुविधाएं मिलनी चाहिए.”

गोल्डन गर्ल बनने का सफ़र

आशाकिरण अपनी सफलता का श्रेय दो लोगों सेंटमेरीज़ की टीचर सिस्टर दिव्या जोजो और वर्तमान कोच आशु भाटिया को देती हैं.दरअसल आशाकिरण की बड़ी बहन प्लोरेंस बारला ने 2016 में एक ज़िला स्तरीय इवेंट बाल समागम में आयोजित एथलेटिक्स की विभिन्‍न प्रतियोगिताओं में भाग लिया था और अव्वल आईं थीं.तब सेंटमेरीज़ स्कूल के बच्चों ने गेम्स टीचर सिस्टर दिव्या जोजो को बताया कि फ्लोरेंस बारला की छोटी बहन आशाकिरण भी बहुत अच्छी एथलीट हैं.टीचर दिव्या जोजो कहती हैं, “आशाकिरण के बारे में पूछने पर फ्लोरेंस ने बताया कि वो उनसे अच्छी एथलीट हैं. लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति दयनीय होने की वजह से मां ने मजबूरी में उनकी पढ़ाई पांचवीं के बाद बंद करवा दी. वह इस समय रांची में किसी के घर में काम करती हैं.”टीचर दिव्या जोजो की पहल के बाद आशाकिरण का दाख़िला 2017 में रांची-गुमला बॉर्डर के नज़दीक महुगांव के सेंटमेरीज़ स्कूल की छठवीं कक्षा में हुआ.दाख़िले के बाद सिस्टर दिव्या की पहली प्राथमिकता आशाकिरण को तराशने की थी. लेकिन इसमें आशाकिरण के परिवार की ग़रीबी बाधा बनती दिखाई दी.सिस्टर दिव्या जोजो के अनुसार दोनों बहनों को अतिरिक्त अभ्यास के लिए स्कूल में रुकने को कहा जाता लेकिन वो अक्सर वहां नहीं रुकती थीं.सिस्टर दिव्या कहती हैं, “फिर मैं उनके गांव गई. जहां मुझे मालूम हुआ कि दोनों बहनें बग़ैर खाना खाए सात किलोमीटर दूर स्कूल आती हैं. उसके बाद उनके खाने का इंतज़ाम मैं ख़ुद करने लगी ताकि उनका मन अभ्यास में लग सके.”दोनों बहनें नंगे पैर ही सात किलोमीटर दूर सेंटमेरीज़ स्कूल के लिए कभी दौड़ लगा कर तो कभी पैदल जाती थीं.दोनों शुरुआत में कई स्पर्धाएं खाली पैर ही जीत गईं. फिर सिस्टर दिव्या ने दोनों बहनों के लिए चप्पल, जूता और ट्रैक सूट उपलब्ध करवाया.

सिस्टर दिव्या बताती हैं, “इसके बाद रांची के ‘नवाटांड़ डे बोर्डिंग स्कूल’ के ब्रदर कैलेप टोपनो ने दोनों बहनों के खेल से प्रभावित होकर उन्हें गाइड करना आरंभ किया तो आशाकिरण ने ज़िला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में कामयाबी का परचम लहराना आरंभ किया.”2017 में ही आशाकिरण ने विशाखापट्टनम में आयोजित अंडर-14 प्रतियोगिता में गोल्ड हासिल किया. राष्ट्रीय स्तर पर यह उनका पहला गोल्ड था.आशाकिरण की इस कामयाबी से प्रभावित होकर सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड के अधिकारियों की पहल के बाद आशाकिरण का दाख़िला 2018 में रांची खेलगांव में हुआ.इंटरमीडिएट की पढ़ाई के बाद फ्लोरेंस बारला बोकारो थर्मल स्थित आशु भाटिया की एकेडमी से जुड़ गईं.लॉकडाउन लगते ही खेलगांव में अभ्यास बंद होने के कारण आशाकिरण को अपने गांव वापस जाना पड़ा. लेकिन यहां खान पान की कमी से आशाकिरण कमज़ोर हो गईं और अभ्यास प्रभावित हो गया.तब कोच आशु भाटिया ने आशाकिरण को राशन मुहैया कराया.आशाकिरण कहती हैं, “आशु सर घर के हालात देख कर बोले कि इस तरह अभ्यास नहीं हो सकेगा. उनके कहने पर मैं लॉकडाउन में ही उनकी एथलेटिक्स एकेडमी में चली गई और तब से वहां अभ्यास कर रही हूं.”शुरू शुरू में आशाकिरण को एथलेटिक्स के बड़े इंवेंट्स की जानकारी नहीं थी. वे कहती हैं, “कोच आशु सर ने हम दोनों बहनों को अपने खर्च पर पिछले दो साल में प्रत्येक एथलेटिक्स इवेंट का हिस्सा बनाया. हम दोनों सफल भी हैं. अब मेरा अगला लक्ष्य 2024 में ओलंपिक गोल्ड हासिल करने का है.”

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