रणघोष की सीधी सपाट बात में इस सच को भी स्वीकार कर लिजिए

अखबारों के लोकलपुल आउट ने पत्रकारों को बाबू बना दिया


– पाठक बचे नहीं उपभोक्ता- छपास रोगियों का कब्जा

– कितने प्रेस नोट बनाए यहीं पत्रकारिता

– लोकल बाजार पर कब्जा करना ही लोकल पत्रकारिता

– अखबार की लागत 20 रुपए खरीद रहे 5 रुपए में, उम्मीद करते हैं ईमानदारी की


रणघोष खास. प्रदीप नारायण

समय समय पर खुद के प्रति जवाबदेही तय करने के लिए आत्ममंथन करते रहना चाहिए। बात करते हैं प्रिंट मीडिया में काम करने वाले पत्रकार साथियों और प्रबंधन पॉलिसी की। पिछले 25 सालों में अखबारों को अपनी असली पहचान और ताकत  छोटे शहरों एवं कस्बों के नाम से निकलने वाले लोकल पुल आउट के रास्ते से मिली है। इसमें प्रकाशित खबरों का स्तर संडे मार्केट जैसा बन चुका है। छपने वाले और छापने वाले समाज के बेहद ही जागरूक- जिम्मेदार- तमाम तरह की विशेषताओं को समाए हुए वे चेहरे होते हैं जो अक्सर मंचों पर खुद को गीता में भगवान श्रीकृष्ण के अंदाज में प्रवचन देते नजर आते हैं। ऐसा लगता है कि अगर ये नहीं होते तो सबकुछ ध्वस्त हो जाता। देखा जाए तो इस लोकल पुल आउट के जरिए पत्रकारिता को गांव की चौपाल तक पहुंचाने का श्रेय हिंदी पत्रकारिता में दैनिक भास्कर को जाता है आगे चलकर अन्य मीडिया संस्थानों ने इसका अनुसरण किया। नतीजा डिमांड के हिसाब से एक तरफ पत्रकारों की जमात तेजी से बढ़ती जनसंख्या की तरह नजर आने लगी दूसरी तरफ  मीडिया दो चरित्र में नजर आने लगा। पहला लोकल दूसरा राष्ट्रीय। सही मायनों में इस सोच ने ही पत्रकारिता के असल वजूद को धीरे धीरे खत्म करना शुरू कर दिया। सोचिए कोई भी घटना, सूचना या आयोजन लोकल व राष्ट्रीय कैसे हो सकती है। दिल्ली- मुंबई जैसे महानगरों में गैंगरेप की घटना हो जाए तो देश असुरक्षित और सहमा नजर आता है। अगर यही घटना ग्रामीण परिवेश में हो जाए तो महज एक हादसा.। मतलब आबरू को भी मीडिया ने अपने बाजारवाद की हरकतों से अलग अलग तराजु में तोल दिया। गांव की बेटी दहेज के खिलाफ शादी करने से मना कर दे वह लोकल खबर बनती है। शहर में रहने वाली मिस इंडिया बन जाए तो वह देश की शान बनकर राष्ट्रीय स्तर पर नजर आती है। दुश्मनों से लड़ते शहीद हुए फौजी का पार्थिव शरीर गांव लौटता है तो वह लोकल कवरेज में आता है। इसी फौजी पर बनने वाली फिल्म को यही मीडिया देशभक्ति का जज्बा बताकर राष्ट्रीय स्तर पर बेहिसाब कवरेज देता है। ऐसी अनगिनत खबरें हर रोज लोकल पुल आउट के नाम का जहर पीकर दम तोड़ रही है।

पाठक बचे नहीं उपभोक्ता- छपास रोगियों का कब्जा

कायदे से देखा जाए तो पाठकों की संख्या उतनी बची है जितनी चूल्हे पर रोटी बनाने वाले घरों की तादाद। छोटी छोटी स्कीमों के लालच में अखबार बदल जाते हैं। जिंदा रहने के लिए अखबार मालिकों को बाजार की शर्तों पर चलना पड़ता है। तकरीबन खबरों पर उन्हीं लोगों का प्रभाव नजर आता है जो विज्ञापन के रास्ते अपने कारोबार और पहचान को मजबूत बनाते हैं। लोकल पुल आउट में खबरें छपने की गुंजाइश बेशुमार रहती है। इसलिए कुछ भी चाहे सफेद झूठ हो टाइप करके अखबारों को मेल कर दीजिए। सुबह खबर की शक्ल में इतराती नजर आएगी। मसलन अपने जन्मदिन पर पौधा लगाया, गाय को गुड खिलाना, जरूरतमंदों को मिठाई बांटी, रक्तदान किया, भंडारा लगाया, योगा किया, भजन कीर्तन किया, छबील लगाईं, गली मोहल्लो में होने वाले खेलकूद प्रतियोगिता का रिबन काटा, किसी की शिकायत इधर उधर भेजी इत्यादि.. इत्यादि। पत्रकारों से जान पहचान अच्छी है तो फिर कहना क्या..। कमाल की बात यह है कि इस इस तरह की कवरेज से गधा भी घोड़ा नजर आने लगता है। इतना ही नहीं यही छपने वाले लोग विचार गोष्ठी या आपसी बातचीत में मीडिया पर टीका टिप्पणी व नसीहत देते नजर आते हैं। अगर इन्हें कवरेज मिलना बंद हो जाए तो इनका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। कुछ की हालत इतनी खराब हो जाती है कि वे परिवार- समाज में होने वाली तमाम तरह की घटनाओं के लिए मीडिया को जिम्मेदार ठहराना शुरू कर देते हैं।

कितने प्रेस नोट बनाए यहीं पत्रकारिता

लोकपुल आउट में नजर आने वाली खबरों को गौर से देखिए जिसे आप पत्रकार कहते हैं वह पूरी तरह टाइपिस्ट व ईमेल पर आने वाले समाचारों को दुरुस्त करने वाला प्रूफ रीडर नजर आएगा। पत्रकार ने दिनभर किस खबर पर काम किया यह महत्वपूर्ण नहीं है उसने कितने प्रेस नोट बनाए यह उसकी असल योग्यता है। इसी का भरपूर फायदा जमात के उन लोगों ने जमकर उठाया और लगातार उठाते आ रहे हैं जिसे अखबार की भाषा में छपास रोगी कहते हैं। ध्यान से देखिए हर जिले या कस्बे में 50 से 100 ऐसी शख्सियत मिल जाएगी जो सुबह उठने से लेकर सोने तक होने वाली गतिविधियों को खबर की शक्ल में देने में लगे रहते हैं। इनका सकारात्मक पक्ष देखे तो अगर ये लोग नहीं हो तो लोकल पुल आउट का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता। इन्हीं लोगों की वजह से लोकल खबरों के कार्यालयों में काम  करने वाले पत्रकारों की नौकरी सुरक्षित है।

लोकल बाजार पर कब्जा करना ही लोकल पत्रकारिता

लोकल पुल आउट निकालने वाले मालिकों का लोकलपुल आउट निकालने के दो मकसद रहे हैं। पहला लोकल बाजार पर विज्ञापन के जरिए अखबार निकालने के तमाम खर्चों को कवर करना। किसी भी मीडिया संस्थान को चलाने के लिए विज्ञापन का मिलना शरीर मे रक्त की तरह होता है। दूसरा उन खबरों को जगह मिलना जो अभी तक जगह नहीं मिलने की वजह से रह जाती थी। इसलिए लोकलपुल आउट वहीं निकल रहे हैं जहां से विज्ञापन उनकी ताकत बने हुए हैं। नहीं तो बहुत से अखबार कब आकर चले गए पता नहीं चलता।

अखबार की लागत 20 रुपए खरीद रहे 5 रुपए में, उम्मीद करते हैं ईमानदारी की

पड़ोसी देश पाकिस्तान में अखबारों का मूल्य 20 से 25 रुपए निर्धारित है। हमारे देश में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बताकर उसे वर्तमान में 3- 5 रुपए में बेचा जा रहा है। पाक की तरह हमारे यहां मूल्य तय किए जाए तो यकीन मानिए पाठक ऐसे गायब होंगे जैसे गधे के सिर से सींग गायब होना। लागत से 15 रुपए कम में अखबार खरीदना ओर स्कीमों के लालच में अखबार झट से बदल देने वाले ही पाठक ही मीडिया को ईमानदारी, नैतिकता और कर्तव्यता की नसीहत देने में सबसे आगे रहेंगे। इस मानसिकता में मीडिया में कैसे आमजन  की आवाज बन सकती है इस पर मंथन करना जरूरी है।

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