रणघोष की सीधी सपाट बात :

जब सभी पार्षद दुखी है तो नप में काम किसका हो रहा है


रणघोष खास. सुभाष चौधरी


नगर परिषद में इन दिनों ऊपर ही ऊपर सबकुछ बेहतर हो रहा है लेकिन अदंरखाने सबकुछ बिखरा हुआ नजर आ रहा है। जिसे समेटने के लिए नगर के पार्षद कभी सड़कों पर संघर्ष करते तो कभी अधिकारियों के साथ गुहार लगाते नजर आ रहे हैं। हालात यह हो चुकी है जिस जनता ने अपने बेशकीमती वोटों से एक उम्मीद के साथ शहर की सरकार में अपने वार्ड के जनप्रतिनिधि को चुना था।  उसकी आवाज एक साल बाद भी नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई है। पार्षदों को काम करवाने के लिए कभी मीडिया का सहारा लेना  पड़ रहा हैं तो कभी सीएम व उच्च अधिकारियों को ज्ञापन सौंप रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि जब पार्षदों के काम ही नहीं हो रहे हैं तो फिर नप में दिनभर किसके काम हो रहे हैं। या तो पार्षदों की कार्यप्रणाली साफ सुथरी नहीं है या वे अधिकारियों पर अनावश्यक दबाव बनाकर अपने निजी हितों को पूरा करवाना चाहते हैं। इससे उलट अगर पार्षदों की आवाज में ताकत है तो अधिकारियों एवं कर्मचारियों की नीयत में खोट है। इसमें कोई दो राय नहीं की नप में विकास के नाम पर ऊपर से नीचे तक कमीशन बंटता है। काम लेने वाला ठेकेदार पूरे आत्मविश्वास के साथ बताता है कि चैक पर साइन करते समय कमीशन का कितना प्रतिशत किसके पास बंटता है। पिछले दिनों कमीशन को लेकर एक पार्षद का ठेकेदार से विवाद इतना बढ़ गया कि उसने वार्ड में करवाए गए कार्य को लेकर इतनी शिकायतें कर दी कि सबकुछ वहीं रूक गया। इस पार्षद का कहना था कि उसे भी उतना ही कमीशन चाहिए जो बड़ी सीट वालों को मिलता हैं। उससे कम पर वह चुप नहीं बैठेगा। ठेकेदार को लगा कि बड़ी सीट वाले उसे एडजस्ट कर लेंगे लेकिन सफल नहीं हो पाए। देखा जाए तो आधे पार्षद इसलिए आमतौर पर चुप रहते हैं कि उन्हें ठेकेदार से वह मिल रहा है जिसकी वे उम्मीद कर रहे थे। अगर ऐसा नहीं है तो उनकी आवाज अचानक शोर मचाकर चुप क्यों हो जाती है। नप के सभी 34 पार्षद ऑफ दा रिकार्ड यह मानते हैं कि अधिकारी उनकी नहीं सुनते। कुल मिलाकर नप को लेकर मीडिया में बेहतरी को लेकर जो दावा किया जा रहा है वह जमीन से मेल नहीं खा रहा है।

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