रणघोष की सीधी सपाट बात

आतेआते देश 72 सालों में इस तरह बंटा हुआ मिलेगा, किसने सोचा था?


आजादी के बाद का यह पहला गणतंत्र दिवस था कि जब राजधानी दिल्ली में दो परेड हुई, सदा की तरह एक सरकारी छतरी के नीचे; दूसरी ट्रैक्टरों की छतरी के नीचे। 72वें गणतंत्र दिवस के आते-आते देश इस तरह बंटा हुआ मिलेगा, किसने सोचा था? यह आज किसानों और गैर-किसानों में, पक्ष और विपक्ष में, लोक और तंत्र में ही बंटा हुआ नहीं है, यह तन और मन से इतनी जगहों पर, इतनी तरह से बंटा हुआ है कि आप उसका आकलन करते हुए घबराने लगें। 26 जनवरी को ही सारे अखबारों, चैनलों ने यह लिखना-कहना शुरू कर दिया कि आंदोलन भटक गया, कि उसका असली चेहरा सामने आ गया। यह 27 को भी जारी रहा। लेकिन कोई यह नहीं लिख रहा है, कोई यह कह नहीं कह रहा है कि संसार भर में क्रांतियां तो ऐसे ही होती हैं। खून नहीं तो क्रांति कैसी? फ्रांस और रूस की क्रांति का इतना महिमामंडन होता है। उनमें क्या हुआ था? यह तो गांधी ने आकर हमें सिखाया कि क्रांति का दूसरा रास्ता भी है। इसलिए किसान आंदोलन का यह टी-20 वाला रूप हमें भाया नहीं है। लेकिन गांधी की कसौटी अगर आपको प्रिय है तो उसे किसानों पर ही क्यों, सरकार पर भी क्यों न लागू करते और प्रशासन पर भी? किसानों ने आइीटीओ पर पुलिस पर छिटफुट हमला किया, इसका इतना शोर है लेकिन पिछले महीनों में दिल्ली आते किसानों पर पुलिस का जो गैर-कानूनी, असंवैधानिक हमला होता रहा, उस पर किसने, क्या लिखा-कहा? सार्वजनिक संपत्ति का कुछ नुकसान 26 जनवरी को जरूर हुआ लेकिन प्रशासन ने सडक़ें काटकर, पेड़ काटकर, लोहे और सीमेंट के अनगिनत अवरोध खड़े करके, चाय-पानी की दूकानें बंद करवा कर, करोड़ों रुपयों का डीजल-पेट्रोल फूंक कर पुलिस और दंगानिरोधक दस्तों को लगाकर सार्वजनिक धन की जो होली पिछले महीनों में जलाई, क्या उस पर भी किसी ने लिखा-कहा कुछ? जिस तरह ये तीनों कानून चोर दरवाजे से लाकर देश पर थोप दिए गए, क्या उसे भी हिसाब में नहीं लेना चाहिए? क्या यह भी दर्ज नहीं किया जाना चाहिए कि किसानों ने पहले दिन से ही इन कानूनों से अपनी असहमति जाहिर कर दी थी और फिर कदम-दर-कदम वे विरोध तक पहुंचे थे?  सरकार ने हमेशा उन्हें तिनके से टालना और धोखा देना चाहा। सबसे पहले शरद पवार ने यह सारा संदर्भ समेटते हुए कहा कि यह सब जो हुआ है, उसकी जिम्मेवारी सरकार की है।

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