पुण्यतिथि: यदि आज गांधी जी जिंदा होते तो

राष्ट्र बेताब दिख रहा है, बेहतरी और बदलाव के लिए


रणघोष खास. देशभर से


वर्ष-2021 की महात्मा गांधी पुण्य तिथि ऐसे मौके पर आई है। जब  भारत आज सचमुच एक परिवर्तनकारी मोड़ पर खड़ा है। जहां एक ओर चुनौतियां हैं, वहीं दूसरी ओर आशायें। वक्त के वैचारिक झोंके प्रमाण हैं कि इस दुर्लभ मोड़ पर खड़े भारतवासी जहां एक ओर करवट लेने का एहसास करा रहे हैं; राष्ट्र बेताब दिख रहा है, बेहतरी और बदलाव के लिए; दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ लोग इस वक्त को कभी अहिंसक गांधी की हत्या करने वाले हिंसक नाथूराम गोडसे को राष्ट्रवादी बताकर, तो कभी मदर टेरेसा पर आक्षेप लगाकर, कभी शांतिपूर्ण सत्याग्रहों पर हिंसा का ठप्पा लगाकर और कभी गांधी को गाली देने में गंवाने में लगे हैं। ये ऐसे कृत्य हैं, जिनसे भारत के सबसे कमजोर इंसान की जिंदगी में सुधार में कोई सहयोग नहीं हो सकता। हम कह सकते हैं कि भारत की सरकार, राजनीति और 26 जनवरी की हिंसा को अंजाम देने वाले…तीनों ने गांधी से कुछ नहीं सीखा। एक ओर संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था गांधी के कहे को हासिल करने के लिए उनकी जन्म तिथि को ‘अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाने का निवेदन कर रही है, वहीं गांधी का अपना देश, गांधी की वैचारिक चेतना को गंवाने में लगा है। क्या हम खुश हों? संभवतः भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान हालात का अंदाज़ा लगाकर ही गांधी ने कभी ऐलान किया था कि आज़ादी नीचे से शुरु होनी चाहिए। उन्होंने यंग इंडिया में लिखा था – ”मेरे सपनों का स्वराज्य तो गरीबों का स्वराज्य होगा।” चंपारन में जबरन कराई जा रही नील की खेती और खेड़ा में कुनाबी-पाटीदार किसानों पर लादे लगान के विरुद्ध लड़ी लड़ाई इसका प्रमाण है। किसानों के वर्तमान आंदोलन को नकारकर, क्या स्वयं को राष्ट्रवादी कहने वाले दल की अगुवाई में बनी वर्तमान सरकार, किसानों के प्रति उस आस्था को नकार नहीं रही, जो सिर्फ महात्मा गांधी की नहीं, भारतीय संस्कृति की भी मौलिक आस्था है? मेरे ख्याल से गांधी के गांव, ग़रीब, मेहनतकश, किसान, सूत और तकली को नकारना, तो अंतिम जन की उस पूरी चेतना को ही नकार देना है, कभी चरखा, जिसके उत्थान का औजार बनकर सबसे आगे दिखा।गांधी जी शुद्ध स्वदेशी को परमार्थ की पराकाष्ठा मानते हुए एक ऐसी भावना के रूप में व्यक्त करते थे, जो हमें दूर को छोड़कर अपने सीमावर्ती परिवेश का ही उपयोग और सेवा करना सिखाती है। गांधी जी कहते थे कि भारत की जनता की अधिकांश ग़रीबी का कारण यह है कि आर्थिक और औद्योगिक जीवन में हमने स्वदेशी के नियम को भंग किया। विकास और विनाश के बीच इस नीतिगत विवाद का, अमीर-ग़रीब तथा सत्ता-प्रजा के रूप में विवाद में तब्दील हो जाना दुर्भाग्यपूर्ण भी है और चुनौतीपूर्ण भी। रास्ता दिखाता विचार, आज फिर वही गांधी ही है। हांलाकि पूंजी की गुलामी की ललक में हम सभी बहुत कुछ खो चुके हैं; बावजूद इसके यदि हम गांधी के सूत, तकली से लेकर उनके विचार और उनके तमाम रचनात्मक कार्यक्रमों पर गौर करें, तो पायेंगे कि अपने हाथ के काते को बुनने और पहनने का मूल विचार, कुटीर उद्योग, स्वच्छता, ग्रामोत्थान, बुनियादी शिक्षा, ग्राम स्वराज, स्वदेशी, स्वावलंबी जीवन, हिंद स्वराज की अवधारणा, नमक सत्याग्रह, बापू के रचनात्मक कार्यक्रम, ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम का सद्भाव संदेश, बापू के सपने का भारत, गांधी जी का ताबीज, सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह और शांति के बल पर दुनिया की सुरक्षा तथा अस्पृश्यता के विरुद्ध हरिजन सेवा के गांधी आह्वान से लेकर निर्णय प्रक्रिया के विकेन्द्रीकरण और लोक को सत्ता के केन्द्र में आने के विचार और व्यवहार का गांधी दर्शन, अंतिम जन के हित का ही दर्शन शास्त्र था। गांधी कहते थे कि जिसके पास धन है, वह धन-जन है। जिसके पर धन नहीं; जो अकिंचन है। उसका ईश्वर है। वह ईश्वर का जन है; हरिजन है। कौन नहीं जानता कि गांधी ने आजादी के लिए संघर्ष करते-करते हरिजनों के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक अधिकार के लिए भी सतत संघर्ष किया। अपने सपनों के भारत का सपना संजोते वक्त गांधी लिखते हैं – ”मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करुंगा, जिसमें ग़रीब से ग़रीब आदमी भी यह महसूस कर सके कि यह उसका देश है, जिसके निर्माण में उसका महत्व है। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करुंगा, जिसमें ऊंच और नीच का कोई भेद न हो और सब जातियां मिल-जुल कर रहती हों। ऐसे भारत में अस्पृश्यता व शराब तथा नशीली चीजों के अनिष्टों के लिए कोई स्थान नहीं होगा। उसमें स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार होंगे। सारी दुनिया से हमारा सम्बन्ध शांति और भाई चारे का होगा।” क्या गांधी का यह सपना गुरेज करने लायक है? हमें समस्या का समाधान व्यवस्था या राजनीति में नहीं, पंचायतों तथा मोहल्ला समितियों के रूप में गठित बुनियादी लोक इकाई से लेकर हमारे निजी चरित्र में आई गिरावट में खोजने की जरूरत है। चरित्र निर्माण… गांधी मार्ग का भी मूलाधार है और विवेकानंद द्वारा युवाशक्ति के आहृान का भी।

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