रणघोष खास में पढ़िए :क्या भारत में ‘संस्थागत-अन्याय’ लगातार पैर पसार रहा है?

रणघोष खास. वंदिता मिश्रा


न्याय को सुविधा के लिए अनुच्छेदों में बाँटा गया था। न्याय के लिए बनाई गई धाराओं का उद्देश्य यह कभी नहीं था कि एक दिन इन्हीं धाराओं को मनचाहे तरीके से जोड़ तोड़ के लोकतंत्र का गला घोंट दिया जाएगा। भारत में न्याय की बिखरती अवधारणा और न्याय का सत्ता-प्रेम इसलिए सामान्य होता जा रहा है क्योंकि जिन संस्थाओं से न्याय की आशा की गई थी वो स्वतंत्र रूप से अपनी निजी विचारधारा को न्याय के अनुच्छेदों में गूँथ रहे हैं। अपने इस कृत्य को वो ‘अवमानना के नोटिस’ से ढँक देना चाहते हैं ताकि लोग चर्चा करने मात्र से डरना शुरू कर दें।  यहाँ चर्चा किसी एक व्यक्ति, संस्था या विश्वास से प्रेरित अन्याय या न्याय की नहीं है बल्कि मामला भारत में लगातार पैर पसार रहे ‘संस्थागत-अन्याय’ की है। किसी भी संस्था का नाम ले लीजिए- मसलन, न्यायपालिका, प्रधानमंत्री, प्रवर्तन निदेशालय(ईडी), सीबीआई या फिर चुनाव आयोग आदि। सभी संस्थाएं संस्थागत फ्रेमवर्क पर निर्मित हैं लेकिन लगभग सभी किसी न किसी रूप में संस्थागत-अन्याय को प्रश्रय दे रही हैं। यह सब जानबूझकर हो रहा है या अनजाने में, यह आज अब संविधान के लागू होने के 72 सालों बाद मायने नहीं रखता। क्योंकि किसी के साथ अन्याय करने के लिए हमारे पास ‘औपनिवेशिक सत्ता’ और कानून का रोना नहीं रह गया है। एक फिल्म रिलीज होती है और उसमें कुछ तथाकथित डायलॉग हमारी अपनी वर्षों की प्रेरणा से मैच नहीं करते। फिल्म निर्माता हमारी मर्जी की फिल्म बनाने में असफल रहता है, वह पौराणिक चरित्रों को वैसे नहीं देखना चाहता जैसा बहुत से लोग चाहते हैं और फिल्म का विरोध शुरू हो जाता है, निर्माता, निर्देशक, लेखक सभी को धमकियाँ मिलने लगती हैं। लेकिन असली समस्या तब आती है जब एक संवैधानिक संस्थान कानून के अनुच्छेदों को अपनी निजी विचारधारा से खाद-पानी देने की कोशिश में संविधान की मौलिकता को ही नष्ट करने की कोशिश में लग जाता है। मर्यादापुरुषोत्तम राम के चरित्र पर आधारित या प्रेरित इस फिल्म के निर्माता और लेखक को सिर्फ इसलिए न्यायपालिका की फटकार का सामना करना पड़ता है क्योंकि लेखक ‘अपने राम’ को अलग तरीके से दिखाना चाहता है। बस तरीका ही अलग था लेकिन उसे अपमान समझ लिया गया।  21वीं सदी के भारत में फिल्में धार्मिक संगठनों के हठ और न्यायपालिका की न्याय की अपनी ‘समझ’ पर आधारित हों, यह शर्म की बात है। बेहद सामान्य सी बात जो न्यायपालिका को नहीं समझ आई कि फिल्मों के निर्माण से राम नहीं बदला करते और दूसरी यह कि राम की मर्यादा उनकी व्यक्तिगत पूंजी थी समाज के लिए उनके द्वारा कोई दिया गया दिशानिर्देश नहीं था, ऐसे में राम के नाम पर आने वाली पीढ़ियों को दिशानिर्देश जारी करते रहना न्याय नहीं है। यदि फिल्मों से धर्म ढह रहे होते तो ईसाई धर्म तो कब का ढह जाता। केन रसेल की ‘द डेविल्स’ (1971) और लार्स वॉन ट्रिएर की ‘एंटीक्राइस्ट’(2009) जैसी फिल्मों के बाद भी ईसाई धर्म का पतन नहीं हुआ बल्कि आज ऐतिहासिक रूप से इस पृथ्वी पर सर्वाधिक ईसाई मौजूद हैं। आज हालत यहाँ तक पहुँच गई कि राम पर बनी फिल्म का लेखक ‘भावनाओं को ठेस पहुँचाने’ के लिए माफी तक मांग लेता है। हो सकता है जनता और न्याय के घोषित पुरोहित इस बात से अब संतुष्ट हो जाएँ कि माफी मांग ली गई है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि हर बार ऐसी माफ़ी भारत को कमजोर करती है। समस्या यह है कि देश की प्रतिष्ठा और स्वाभिमान की गारंटी कौन लेगा? गुजरात उच्च न्यायालय ने विपक्ष के सबसे बड़े नेता कॉंग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी को मानहानि मामले में राहत देने से इंकार कर दिया। द न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में राहुल गाँधी की एक टिप्पणी से उपजा मानहानि का मामला सुप्रीम कोर्ट जा सकता है। इससे आगामी चुनावों में भाग लेने की उनकी क्षमता को नुकसान पहुँच सकता है”। क्या इससे पूरी दुनिया में यह संदेश नहीं जाएगा कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने विपक्ष के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित नेता को एक टिप्पणी के लिए लोकतंत्र की सबसे बड़ी एक्सर्साइज़ से बाहर करने के मुहाने पर पहुँच गया है? यह भी कि जो मामला न्यायालय द्वारा शुरुआत में ही खारिज कर दिया जाना चाहिए था वह आज देश की सबसे बड़ी अदालत में जा पहुँचा है, आखिर कौन है जो यह तय करता है कि कब कानून को कैसे इस्तेमाल करना है? कौन है जो कानून को न्याय के लिए नहीं बल्कि सत्ता पर जमे रहने के लिए इस्तेमाल करता है? इसका जवाब कानून की धाराओं की उस रस्सी में छिपा हुआ है जिसे ‘कोई’ अपने तरीके से जोड़-तोड़-मरोड़ रहा है। जनसमूह से नागरिक बनने की प्रक्रिया में दशकों के लिए पिछड़ चुका भारत जिस दिन पर्याप्त मात्रा में ‘नागरिक’ अर्जित कर लेगा उस दिन शायद संस्थागत-अन्याय की हिम्मत करने की कोशिश भी नहीं हो सकेगी।

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