राजनीति को सेवा कहना सफेद झूठ, मीडिया सत्य दिखाता है महाझूठ

  •   राजनीति- मीडिया हमारे देश में बिजनेस का ऐसा मॉडल बन चुके है जिसमें कच्चा माल इंसानी खोपड़ी में हर समय तैयार होती अच्छी बुरी समझ के स्टोर से सप्लाई होता है। डिलीवरी इतनी खुबसूरती से होती है कि इंसान को पता नहीं चलता कि उसके दिमाग का सौदा हो चुका है।


रणघोष खास. प्रदीप नारायण


देश में राजनीति को लेकर अब उदासीनता ने अपना चेहरा बदल लिया है। वजह आमजन ने इसके छिपे असली चरित्र को देख लिया है जो अभी तक समाजसेवा, धर्म- कर्म ना जाने कितने नैतिक गुणों की पालिश कर छिपा रखा था। किसी भी राजनीतिक पार्टी के पदाधिकारी, छोटे बड़े नेता को पढ़ना व समझना बेहद आसान है। अगर कोई यह कहे कि वह राजनीति की दुनिया में सेवा करने आया है समझ जाइए वह धोखा, छल कपट के रास्ते आपका इस्तेमाल करने के लिए संबंध बना रहा है। सेवा करने के लिए किसी प्लेटफार्म की नहीं नीयत की जरूरत होती है। वर्तमान संदर्भ में राजनीति एक तरह से ऐसा उद्योग है जिसमें समाजसेवा के नाम पर अलग अलग तरह के प्रोडेक्ट तैयार होते हैं। माहौल एवं डिमांड के हिसाब से इन उत्पादों को धर्म- जाति का डिजाइन भी दिया जाता है ताकि बाजार में डिमांड बनी रहे। हमारे देश में राजनीति- मीडिया बिजनेस का ऐसा मॉडल बन चुका  है जिसमें कच्चा माल इंसानी खोपड़ी में हर समय तैयार होती अच्छी बुरी समझ के स्टोर से सप्लाई होता है। डिलीवरी इतनी खुबसूरती से होती है कि इंसान को पता नहीं चलता कि उसके दिमाग का सौदा हो चुका है। राजनीति उद्योग में कार्यकर्ता- पदाधिकारी, नेता- मंत्री व विधायक नाम से अलग अलग महकमें होते हैं। किसी मीटिंग में दरी पर बैठने वाले कार्यकर्ता को देखकर समझ जाइए वह आर्थिक तौर पर कमजोर मिलेगा। उसके अपने दिमाग पर किसी ओर का कब्जा हो चुका है। वह ताली बजाने के लिए हैं।  जो कुर्सी पर है उसकी अपनी समझ है इसलिए उसे क्षेत्र विशेष का टेंडर मिला हुआ है। मंच पर कुर्सियां आगे पीछे होती हैं। जो आगे की पंक्ति में है वे मौके पर तैयार प्रोडेक्ट को बेचने में ज्यादा काबिल है। जो मुख्य अतिथि या वक्ता है वह एक तरह से मार्केट में उतरने को तैयार नए प्रोडेक्ट के ब्रांड एंबेसडर है। उन्हें पता है माल कैसे ओर किस तरह बेचना है। प्रोडेक्ट तैयार करने में सभी की अपनी हैसियत के हिसाब से आर्थिक- मानसिक एवं सामाजिक लागत लगी रहती है। इसलिए मुनाफा भी तौर तरीकों से मिलता है। जिसके पास पैसा है समय नहीं है वह पार्टी फंड संभालेगा। इसके बदले उसकी फाइल में सबकुछ ओके नजर आएगा।  जिसके पास समय है वह जनता बाजार में प्रोडेक्ट बेचता नजर आएगा। बाकि इनके आगे पीछे दहाड़ी पर गली ताली बजाते नजर आएंगे। कोई यह दावा करें यह झूठ है तो वह साबित करें कि उसके घर का चूल्हा कैसे जलता है, रोज का खर्चा कहां से आता है, सही गलत, गलत सही कैसे हो जाता है। चुनावी सीजन में राजनीति बाजार का रूख देखकर इधर उधर क्यों भागने लग जाते  है। उस समय इस प्रोडेक्ट की ब्रांड वैल्यू कहां चली जाती है। क्यों जनता विकास के नाम पर तैयार इनका प्रोडेक्ट इनकी नजरों से होता हुआ जमीन पर पहुंचते चवन्नी बन जाता है। जहां तक इन राजनीति उद्योगों में तैयार हो रहे प्रोडेक्ट की ब्रांडिंग करने वाले मीडिया की बात है। यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि मीडिया विशुद्ध व्यवसाय है मिशन नहीं । इसमें काम करने वाले पत्रकार एवं कर्मचारियों की रोजी रोटी इस व्यवसाय से होने वाली कमाई से चलती है। जाहिर है जो मीडिया के आर्थिक पक्ष में सहयोग करेंगा उसका प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष लाभ भी उसे मिलेगा। इसलिए कोई मीडिया यह दावा करें कि वह पूरी तरह सत्य दिखाता है। समझ जाइए वह महाझूठ बोल रहा है। उसे खुद पर शक है इसलिए दावा करता है।  मीडिया में नेताओं की आने वाली खबरों पर गौर करिए। जब नेता सत्ता में होते हैं उनकी खबरों में स्वस्थ्य समाज नजर आता है। जैसे ही वे सत्ता से बेदखल होते हैं इन्हीं नेताओं को इसी समाज में संडाध नजर आती है। जहां तक मीडिया व नेताओं की आलोचना करने वालों की बात है। आधे से ज्यादा वे हैं जो खुद के प्रति ईमानदार नहीं होते। वे खुद उदाहरण बनने की बजाय दूसरो को ज्यादा नसीहत देते हैं। वे पड़ोसी के बच्चे में भगत सिंह देखना चाहते हैं ताकि उसकी शहादत पर ताली बजा सके।  खुद की औलाद को वे कमाऊ पूत देखना चाहते हैं। अगर यह झूठ है तो गलत आचरण, काम करने वाले चुनाव कैसे जीत जाते है।  वे खुद आगे क्यों नहीं आते। जिस मीडिया को सबसे ज्यादा गाली देते हैं उसकी सबसे ज्यादा चर्चा क्यों करते है। जो सरेआम टीवी स्क्रीन पर अपनी टीआरपी के लिए तमाम मर्यादाओं को तार तार करता नजर आता है वे उसे देखते क्यों हैं। क्या बिकाऊ मीडिया आलोचना करने वालों के साथ जोर जबरदस्ती करता है कि मुझे देखे। क्या समाज में बेहतर काम करने वाले खत्म हो चुके हैं। यकीन मानिए जो करना चाहते हैं यहीं आलोचक इनके संघर्ष का मजाक उड़ाते नजर आते हैं। तब तक हंसेंगे जब तक वह दम नहीं तोड़ दे। उसके बाद मौत पर यही आलोचक सहानुभूति का कैंडल मार्च निकालता नजर आता है।  हम इतना लिख पा रहे हैं यहीं मीडिया में हमारे जिंदा रहने का प्रमाण है।

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