– बच्चे सीखेंगे कैसे? हम उन्हें सिखाएंगे कैसे? हर घर में अब यह सवाल गूंजना चाहिए
– कोरोना काल में गुरु की गरिमा खंडित हो गई इसे हम सभी को स्वीकार कर लेना चाहिए
रणघोष खास. अमर सोमाणी की कलम से
आप सभी कोरोना महामारी के चलते बच्चों की शिक्षा को लेकर बहुत चिंतित होंगे. भारत में लगभग 25 करोड़ बच्चे पहली से 12वीं तक 15.5 लाख स्कूलों में पढ़ते हैं. इनमें 70% स्कूल सरकारी हैं. विश्व भर में कोविड-19 से बचाव के लिए लोगों के किसी भी जगह इकठ्ठा होने पर पाबंदी लगा दी गयी और ज़ाहिर सी बात है स्कूलों और आंगनबाड़ियों को भी बंद कर दिया गया। स्कूलों के बंद हो जाने पर बच्चे, उनके अभिभावक, शिक्षक, प्रशासन और गैर–सरकारी सामाजिक संस्थाएं एक नए प्रश्न से जूझने लगे हैं: अब बच्चे सीखेंगे कैसे? या शायद ज्यादा उपयुक्त वाक्य हो: अब हम बच्चों को सिखाएंगे कैसे? (यहां पर मुख्य रूप से स्कूली शिक्षा की बात होती दिखाई दे रही हैं) इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण प्रश्न हैं कि बच्चों पर इस लॉकडाउन का शारीरिक और मानसिक रूप से क्या प्रभाव पड़ेगा? ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में ये प्रभाव अलग होंगे या एक जैसे? पर इस तरीके के गहरे सवाल पर फिलहाल चर्चा कम है.। क्या आपको पता है कि यूट्यूब पर इतने वीडियोज़ हैं कि बिना पलक झपके अगर आप लगातार देखते रहें तो सारे वीडियोज़ देखने में 60000 साल से भी ज्यादा लगेंगे. खैर, फिर भी नए वीडियो बनाने की ज़रुरत पड़ी और बहुतायत में लोगों ने बनाई और बना ही रहे हैं। हालांकि ये बात जल्द ही सबकी नज़र में आ गयी कि भारत के ज़्यादातर बच्चों के पास या तो कोई इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे मोबाइल व कंप्यूटर नहीं हैं या फिर इन्टरनेट की बड़ी समस्या है. घर पर मोबाइल होने का कतई मतलब नहीं कि बच्चा उसमे वीडियो देख सके और कुछ सीखे–पढ़े. बहुत से गांवों में तो बिजलीभीअपनेमनमर्जीआती–जातीहै। कुछ समझदार लोगों ने ये बात पकड़ ली और ऑफलाइन तरीके पर भी सोचना शुरू किया गया। कुछ राज्य सरकारों ने ऑनलाइन शिक्षा पोर्टल लॉन्च कर दिया. अब राज्य सरकारों को केंद्र सरकार के सामने चमकने के लिए कुछ तो करना ही था. शिक्षकों ने धड़ा–धड़ घर बैठे वीडियो वगैरह तैयार कर अपलोड कर दिया और लो! ऐसा कीचड़ आपने शायद ही कहीं देखा हो. इतने घटिया वीडियो तैयार किए गए कि बच्चा देखकर कहीं मोबाइल ना तोड़ दे. कोई बिस्तर पर लेटे पन्ने पलटता हुआ कुछ बडबड़ा रहा था तो कोई पुस्तक में दिए किसी पाठ को रेलगाड़ी की तरह तेज़ रफ़्तार में पढ़ता ही चला जा रहा था.लेकिन सोचने वाली बात यह है कि कितने ही बच्चे होंगे जो इन ऑनलाइन पाठों को देख–सुन पाएंगे? शहरों के बहुत से निजी स्कूलों (और बहुत सी गैर–सरकारी संस्थाएं जो बच्चों के साथ काम करती है) ने ज़ूम कॉल, गूगल क्लासरूम, व्हाट्सएप इत्यादिपर बच्चों की क्लास लगानी शुरू कर दी। ऑनलाइन सीखने–सिखाने को लेकर एक मोटा मुद्दा ये भी उठ रहा है कि क्या अब सब कुछ केंद्रीकृत हो जाएगा? किसी भी बच्चे और उसके समुदाय के लिए सबसे ज़रूरी उसके आस–पास की दुनिया होती है.इस दुनिया में रहकर और यहां के घटकों से रिश्ता बनाकर सीखने की प्रक्रिया शुरू होती है। इस दुनिया से हम गहरे स्तर पर जुड़े होते हैं. यहां हुए अनुभव की नीव पर आगे के अनुभव खड़े होते हैं और हम नयी चीज़ें सीखते हैं. यही कारण हैं कि अपने परिवेश पर लिखी मामूली कहानी से हम सहज रूप से जुड़ जाते हैं और किसी महान रूसी लेखक की पुरस्कृत कहानी से जुड़ने में कठिनाई होती है. शिक्षा परिवेश और उससे निकलती कहानियों, लोगों और उनके कामों से जुड़ी होती है। अब अगर एक कमरे में एक व्यक्ति किसी विषय को पढ़ाने की, यह मानकर कोशिश करे कि उसे देश के सभी बच्चों तक पहुंचना है, तो भारत जैसे देश की भाषायी, सांस्कृतिक, सामाजिक व ऐतिहासिक विविधता को कैसे एक पाठ में डाल पाएगा? यहांएक बात हमें समझनी होगी की पढ़ाना या कोई नया विषय सिखाना बेहद जटिल होता है. इसके लिए प्रशिक्षण, अनुभव और अभ्यास की ज़रुरत होती है. थोड़ी बहुत मदद करना एक बात है और कुछ नया सिखाना दूसरी. क्या हम किसी भी व्यक्ति से पढ़ाने–सिखाने की अपेक्षा कर सकते हैं? ऐसा ना हो कि हमारी चेतना में ये बात घुस जाए कि कोई भी बच्चों को पढ़ा सकता है. इन बातों का हमेशा विशेष ध्यान रखना होगा. पढ़ाने को लेकर वैसे भी देश भर में एक मान्यता बनी है कि कोई भी यह काम कर सकता है और यह बहुत आसान है. हमें इस बात को सशक्त नहीं करना। बहुत से माता–पिता अपने बच्चों को पढ़ा भी रहे हैं क्योंकि उन्हें ये डर सता रहा है कहीं उनका बच्चा या बच्ची दुनिया की रेस में पिछड़ न जाए. पर ऐसे परिवार, जहां घर के बड़े काम में व्यस्त होंगे, कोरोना के दिए ज़ख्म से उभर रहे होंगे या खुद स्कूली शिक्षा से वंचित रहे होंगे, ये किस तरह से अपने बच्चों की स्कूली शिक्षा में मदद कर सकते हैं? यह सवाल गहरा है। देखिये स्कूल एक–न–एक दिन खुल ही जाएंगे. बच्चों का सीखना–पढ़ना वगैरह जो भी है, सब शुरू हो जाएगा. तब तक परेशान होकर घबराइये नहीं. एक स्कूल संचालक होने के नातेमेरी ज़िम्मेदारी बनती है कि आज की स्थिति पर चिंतन करूं और कहूं.यह मेरे कुछ विचार हैं जो मैंने आपसे बांटे हैं. ज़रूर ही बहुत से महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर मेरी सोच में बारीकी की कमी नज़र आएगी. मेरी बातों पर टिप्पणियां और आलोचनाएं आमंत्रित हैं.