सरकार पीछे हटी तो विपक्ष जिंदा हो जाएगा, यही असली लड़ाई है..

रणघोष खास. देशभर से


 आम तौर पर आत्मविश्वास से लबरेज रहने वाले भाजपा के शीर्ष नेता पहली बार किसान आंदोलन के सामने  बेबस दिख रहे हैं। पहले सरकार किसानों की मांगें मानने के लिए तैयार नहीं थी, लेकिन आंदोलन ने उसे अपना रुख नरम करने के लिए मजबूर किया है। दरअसल  सरकार तीनों बिलों को लेकर इसलिए पीछे नहीं हटना चाहती क्योंकि वह ऐसा करते ही विपक्ष जिंदा हो जाएगा। जो अभी तक निष्प्राण था। इससे पहले पीएम नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने के 15वें महीने ऐसा ही विवादास्पद भूमि अधिग्रहण अध्यादेश वापस लेने की घोषणा की थी। मोदी ने 30 अगस्त 2015 कोमन की बातमें कहा था, “किसानों को भ्रमित किया गया और उनके भीतर डर पैदा किया गया।सरकार कृषि कानूनों को लेकर भी वही तर्क दे रही है।

प्रधानमंत्री ने कहा था, “मेरे लिए देश की हर आवाज महत्वपूर्ण है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण आवाज किसान की है। हमने एक अध्यादेश जारी किया था, कल 31 अगस्त को उसकी समय सीमा खत्म हो रही है। मैंने निर्णय लिया है कि उस अध्यादेश को खत्म होने दिया जाए।तब कदम वापस खींचना मोदी सरकार के लिए सबसे बड़ी कमजोरियत मानी जा रही थी। अब जब सरकार अधिक मजबूत है, वह उससे बचना चाहती है। इतना ही नहींकृषि कानूनों की वजह से सरकार पहले ही बहुत कुछ खो चुकी है। इसकी सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी शिरोमणि अकाली दल अलग हो गई।

उसके नेता प्रकाश सिंह बादल ने पद्म विभूषण सम्मान लौटा दिया है। भाजपा 2022 में पंजाब विधानसभा चुनाव अकेली लड़ना चाहती है, लेकिन उसकी छवि को काफी नुकसान पहुंच रहा है।पंजाब में तो भाजपा की उम्मीदें कमजोर हैं ही, हरियाणा में भी उसकी सरकार एक धागे पर टिकी है। जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के नेता दुष्यंत चौटाला पर मनोहरलाल खट्टर सरकार से समर्थन वापस लेने और प्रदर्शनकारी किसानों का समर्थन करने का दबाव है। प्रदेश के एक वरिष्ठ भाजपा नेता के अनुसार, “खट्टर भी पार्टी नेताओं के दबाव का सामना कर रहे हैं। उन्होंने केंद्रीय नेतृत्व को भरोसा दिलाया था कि प्रदेश का एक भी किसान आंदोलन में हिस्सा नहीं लेगा। वे निरंतर एक बोझ बनते जा रहे हैं।आंदोलन को खालिस्तानी रंग देने का खट्टर का दांव भी उल्टा पड़ गया। यह बात तो स्पष्ट है कि मोदी सरकार किसान आंदोलन से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं थी। उसने इसे कमतर आंका।

पार्टी महासचिव के अनुसार, “शुरू में हमसे उनकी संगठनात्मक क्षमता का आकलन करने में भूल हुई। हमें यह अंदाजा नहीं था कि वे राजधानी तक पहुंच जाएंगे।किसानों ने अपना मोर्चा तो संयुक्त बना रखा है, लेकिन सरकार के भीतर से अलगअलग आवाजें उठ रही हैं। जब राज्यसभा में इन कानूनों के विधेयक पेश किए गए थे, तब भी भाजपा के अनेक नेताओं का मानना था कि यह सुधार लागू करने का सही तरीका नहीं है। एक वरिष्ठ भाजपा नेता बताते हैं, “प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को इतने बड़े विरोध का अंदाजा नहीं था। उन्हें लगा था कि थोड़ाबहुत विरोध होगा और उसके बाद किसान नए कानूनों को स्वीकार कर लेंगे।

उन्होंने कभी इस बात की कल्पना नहीं की थी कि आंदोलनकारी किसान राजधानी का घेराव करेंगे और सरकार की बात ठुकरा देंगे।सरकार इस उम्मीद में है कि धीरेधीरे किसान थक जाएंगे और तब उनका रुख नरम होगा। तब तक सरकार ने किसानों को नए कृषि कानूनों के फायदे बताने का अभियान चलाने का फैसला किया है। लेकिन मौजूदा हालात में स्थिति सरकार की सोच से एकदम उलट नजर आ रही है।

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