ख़तरा सिर्फ़ कुछ लोगों की नागरिकता पर नहीं, पूरे लोकतंत्र पर है जिसकी चपेट में देर-सबेर वे भी आएंगे
रणघोष खास. एक भारतीय की कलम से
देश में जो कुछ हो रहा है, उसके लिए किसी भी राजनीतिक दलों एवं उनके देशभक्तों को ना कोसे। ये सब अपने लक्ष्यों को लेकर बहुत ईमानदार हैं। लक्ष्य तक पहुंचने के लिए चाहे जितने हथकंडे, बेईमानी कर लें अपने भाव इन्होंने कभी नहीं छुपाए और यह इरादा भी कभी नहीं छुपाया कि सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। दरअसल जिन लोगों ने इन्हें वोट दिए, वे बाख़ूबी जानते थे कि जो भी अपनी ताक़त पर सत्ता में आएंगे वे क्या करेगे.। जाति एवं धर्म के नाम पर चल रही हिंसा न कानून व्यवस्था की विफलता का नतीजा है और न ही किसी क़ानून के पक्ष और विरोध में चल रहे टकराव का परिणाम। यह एक शुद्ध सोची–समझी परियोजना का हिस्सा है जिसका मक़सद अपने अपने एकाधिकार को अंतिम तौर पर स्थापित करना है. लेकिन यह काम उस लोकतांत्रिक जज़्बे को ही नष्ट करना होगा जो सभी नागरिकों को समान मानता है, सबके लिए बराबरी के अधिकार और इंसाफ़ की बात करता है। हर घटना में एक ही सबक दिया जाता है हम चाहें तो तुम्हें मार सकते हैं, हम चाहें तो तुम्हें बचा सकते हैं। दुर्भाग्य से यह सबक सीधे भारतीय लोकतंत्र के लिए है. लेकिन क्या हमारे नागरिक यह सोचने लायक बचे हैं कि वे अपने लोकतंत्र को ऐसी बेबसी का शिकार होने देना चाहते हैं या नहीं? । चारों तरफ अलग अलग चेहरों में हो रही हिंसक घटनाओं का इशारा साफ़ है– ख़तरा अब पूरे लोकतंत्र पर है जिसकी चपेट में देर–सबेर वे भी आएंगे जो फिलहाल तटस्थ होकर उत्पीड़न देख रहे हैं। दुनिया के कई देश इस त्रासद अनुभव से गुज़र चुके हैं. क्या हम अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं?