कायदे से भ्रष्टाचार को अब मौलिक अधिकार बना देना चाहिए, इस लेख को पढ़िए समझ में आ जाएगा

सर्वाधिक भ्रष्ट देशों में सम्मानजनक स्थान तो हमें प्राचीनकाल से ही मिला हुआ है। भ्रष्टाचार अंग्रेजी राज में खूब फला-फूला और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तो हमारा मौलिक अधिकार सा बन गया है। यह अलग बात है कि ट्रांसपैरंसी इंटरनैशनल ने अब जाकर ग्लोबल करप्शन रिपोर्ट में हमें यह सम्मान दिया है। एक अन्य सर्वे में बताया गया है कि हमारे यहां पचास हजार करोड़ रुपये की रिश्वत ली और दी जाती है। घूस लेने की परंपरा नई तो कतई नहीं है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में लिखा है कि जैसे जल में रहकर मछली पानी पी जाती है और पता तक नहीं चलता, उसी प्रकार शासकीय सेवक कब घूस ले लेता है, पता नहीं चल पाता है। इसके भी पहले से यह परंपरा चल रही है। संस्कृत नाटक मृच्छकटिकम में विस्तार से ठगी करने, चोरी करने, जुआ खेलने एवं शराबखोरी करने के नुस्खे बताए गए हैं। राजा भर्तृहरि ने अपने प्रसिद्ध शतक में गड़ा धन निकलवाने के लिए श्मशान साधना का महत्व भी प्रतिपादित किया है। मध्यकाल के प्रसिद्ध कवि बिहारी अपने प्रत्येक श्रृंगारिक दोहे के लिए राजा जय सिंह से एक अशर्फी वसूल किया करते थे।

कहने का मतलब यह है कि भ्रष्टाचार को लेकर बहुत अधिक चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि इसे इस रूप में देखना चाहिए कि अब जाकर हमारी परंपरा को सही अर्थों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महत्व दिया गया है। अब तो साधु संत तक विदेशों में अपने पांच सितारा आध्यात्मिक केंद्र बना रहे हैं। कई बाबा स्टिंग ऑपरेशन में कैमरे के सामने काले धन को सफेद बनाने का कार्य करते हुए दिखे हैं। नेताओं की बात तो बहुत पुरानी हो गई है। इसलिए आम आदमी क्यों शरम करे। हमारा देश ही क्यों, कौन सा देश है जहां भ्रष्टाचार नहीं हो रहा? मेरी विनम्र राय में भ्रष्टाचार सबसे अहिंसक उपाय है जिसमें बिना हिंसा के धन का समान वितरण हो जाता है। घूस वही देता है जिसके पास देने को कुछ होता है। लेने वाला भी देने वाले को कुछ देता ही है। इसके बदले में वह कुछ लेता है तो कौन सा पाप करता है। लेन-देन ही तो व्यापार-व्यवसाय का सिद्धांत है। यह वसुधैव कुटुम्बकम का व्यावहारिक रूप है। यदि कोई नियम विरुद्ध जाकर आपको लाभ पहुंचाता है तो आप उसके कठोर परिश्रम एवं उसके रिस्क की एवज में उसे जो पारिश्रमिक देते हैं वह भ्रष्टाचार कैसे हो गया। इसमें कम से कम डकैती, अपहरण, बलात्कार जैसी हिंसा तो नहीं होती है। इसीलिए इसे हम अहिंसावादी आदान-प्रदान कह सकते हैं। दो पक्षों की मर्जी से यह संपन्न होता है तो आप उसे रोकने वाले कौन? भ्रष्टाचार के नाम पर चिल्लपों वही मचाते हैं जिन्हें इसका मौका नहीं मिल पाता। कुछ लेखक-पत्रकार इसका हल्ला मचाते रहते हैं।

लेकिन उन्हें जब भी मौका मिलेगा, वे इससे चूकेंगे नहीं। पुरस्कार पाने या विदेश यात्रा का सुख लेने के लिए क्या वे तीन-पांच नहीं करते? रिश्वत केवल नगद थोड़े ही दी जाती है। उसका एक अमूर्त रूप भी होता है। किसी के आगे पीछे घूमना, उसकी तारीफ करना या उस पर कविता लिख देना भी भ्रष्टाचार का ही रूप है। हालांकि मैं इसे गलत नहीं मानता। भ्रष्टाचार समाज में असंतोष फैलने से रोकता है। सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों को इतना कम वेतन मिलता है कि वे घूस लेना बंद कर दें तो शायद अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में भर्ती तक न करा सकें। दफ्तर का कोई बाबू पड़ोस के किसी व्यवसायी के धन को देखकर अंदर ही अंदर घुलता रहता है। लेकिन ज्यों ही उसके घर रिश्वत की गंगा बहने लगती है वह अपने को कुंठा-मुक्त पाता है। स्वस्थ मन से शरीर भी स्वस्थ रहता है। इस तरह समाज में सुख और संतोष की अभिवृद्धि होती है। भ्रष्टाचार परमात्मा की तरह सर्वव्यापी है। हमने सब विचारों को स्वीकार किया है। यहां तक कि निर्धनता, भुखमरी, अशिक्षा और बीमारियों तक को हमने गले लगाया है तो इस भ्रष्टाचार को स्वीकार करने में क्या हर्ज है?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *