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हमने कोरोना को आरक्षण बना दिया, हर कोई इसे अपने हिसाब से बांट रहा है


Danke Ki Chot Parरणघोष खास. प्रदीप नारायण फोटो


हमारे देश में कोरोना एक साल की उम्र पार कर चुका है। कहने को यह वायरस है लेकिन हमारे देश की इंसानी हरकतों के हिसाब से यह एक तरह का नया आरक्षण है। देश जब आजाद हुआ उस समय समाज में असमानता, छूआछूत और आर्थिक तौर पर पिछड़े वर्ग के लोगों को मुख्य धारा में लाने के लिए 10 साल तक आरक्षण व्यवस्था लागू  की गई थी। कायदे से ईमानदारी से अमल होने के बाद इसे स्वत: खत्म हो जाना चाहिए था। ऐसा नहीं हुआ। जानबूझकर हमारे देश की राजनीति ने इसे जिंदा रखा। नेताओं को डर था कि अगर देश में जातीय व्यवस्था खत्म हो गई तो उनका वजूद ही खतरे में पड़ जाएगा। इसलिए  आज यही आरक्षण अलग अलग वजहों से इंसानी खून में अधिकार के नाम पर सड़कों पर उबाल मारता नजर आ रहा है जिससे बहने वाले खून से हमारे देश के नेता होली खेलते हैं। यह सिलसिला काबू में आने वाला नहीं है क्योंकि इसकी कमांड आरक्षण वर्ग के उन ठेकेदारों ने अपने हाथ में ले ली है जो खुद आर्थिक तौर पर हर लिहाज से मजबूत है लेकिन इसकी आड़ में अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए अपना खेल खेल रहे है। इसके लिए उन्होंने जाति- धर्म को नंगी तलवारों की तरह भयानक तरीके से घूमाना शुरू कर दिया है। हकीकत में आरक्षण का लाभ कौन उठा रहा है यह बताने की जरूरत नहीं है। गांव के पंच- सरपंच से लेकर विधायक, सांसद, राष्ट्रपति तक के चुनाव में जाति- धर्म ही सबसे बड़ी योग्यता बन चुका है।

अब आइए कोरोना पर…..

एक साल पहले जब यह देश में  आया तो वायरस था। आज आरक्षण की तरह दुबारा तेजी से फैल रहा है। देश के पांच राज्यों में हो रहे  विधानसभा चुनाव को गौर से देखिए। नेताओं की छोटी- बड़ी सभाओं में कोरोना किसी को कुछ नहीं कहेगा। वजह नेताओं को चुनाव आयोग से कोरोना से कुछ नहीं बिगड़ने का आरक्षण मिल गया है। इसलिए एक भी केस ऐसा सामने नहीं आया जब चुनाव आयोग या अधिकारियों ने किसी भी नेता के खिलाफ कोरोना फैलाने के नाम पर कोई मामला दर्ज किया हो। जहां चुनाव नहीं है वहां यह वायरस बनकर आक्रमक हो चुका है। लॉकडाउन के हालात बन चुके हैं। सख्ती की जा रही है। इसी तरह सरकारी बसों, कार्यक्रमों, अधिकारियों की मीटिंग, कोर्ट- कचहरी, पुलिस- सरकारी दफ्तरों में इस वायरस पर आरक्षण की तर्ज पर छूट है। कोई कुछ भी करे चलेगा। किसी का कोई नुकसान नहीं होगा। ऐसा अहसास कराया जाता है।  जैसे ही बाजार में भीड़ को चीरते हुए अधिकारियों की टीम दुकानों पर पहुंचेगी। मास्क नहीं पहनने एवं सोशल डिस्टेंस नहीं बनाए जाने का हवाला देकर यही कोरोना उसी समय खतरनाक वायरस का डर बनकर चालान में बदल जाएगा। अब आते हैं स्कूलों पर जहां शिक्षा सरकारी- प्राइवेट बनकर बाजार में खुली बोली की तरह बिकती नजर आती है। इसलिए प्राइवेट स्कूल में 10-15 हजार रुपए वेतन लेने वाला शिक्षक सरकारी स्कूलों में एक से डेढ़ लाख रुपए वेतन लेने वालों के बच्चों को पढ़ा रहा है। अखबारों में छप रहे स्कूली विज्ञापनों को गौर से देखिए। कुछ स्कूल दावा कर रहे हैं कि उनके यहां दाखिला लेते ही बच्चे डॉक्टर्स, इंजीनियर, आईएएस न जाने क्या क्या बन जाएंगे। ये मासूम क्या बनना चाहते हैं और क्या बन सकते हैं। यह सवाल करना ठीक उसी तरह का अपराध है जो बिना किए भुगतना  पड़ता है। ऐसे  निजी स्कूल भी  हैं जो दाखिला में छूट के नाम पर  कोरोना स्कीम लेकर आ चुके हैं। प्राइवेट शिक्षकों को डर सता रहा है कि अगर दुबारा लॉकडाउन हुआ या स्कूल बंद हो गए तो उनके घरों का चूल्हा कैसे जलेगा। उधर सरकारी शिक्षकों में कुछ नए सिरे से कविता पाठ, साहित्य सर्जन, ऑन लाइन आयोजन की तैयारी में जुट गए हैं। हालांकि कोरोना के शुरूआती चरण से ही उन्होंने इसकी शुरूआत कर दी थी। सरकारी महिला शिक्षकों पर यह दबाव रहेगा कि वह ऐसी स्थिति में घर में बाजार से बेहतर व्यंजन बनाने की परीक्षा में मैरिट हासिल कर अपने अंदर छिपी हुई प्रतिभा को सामने लाए।  जहां तक अभिभावकों का सवाल है। जो ईमानदारी से स्कूलों में फीस जमा कर रहे हैं वे तनाव में रहेंगे वजह जिन्होंने जमा नहीं कराई उन्हें आगे चलकर विशेष छूट मिल जाती है। इसी तरह डॉक्टर्स कोरोना के डर से छोटी से छोटी बीमारी  को भी सीरियस बनाने में लबालब नजर आएंगे। जहां तक समाजसेवा की बात है। यह ठीक उसी तरह सुर्खियां बटोरती है जिस तरह ताजमल का श्रेय शाहजहां को देते है। हम भूल जाते हैं ताजमहल को बनाने में करीब 20 हजार मजदूरों ने योगदान दिया था। और करीब 22 साल तक इसका काम चला।  कुल मिलाकर हम सभी ने अपनी हरकतों, स्वार्थ, लालच, पांखडवाद के चलते कोरोना जैसे वायरस को भी उसी अंदाज में लेना शुरू कर दिया है जिस तरह इन दिनों हो रहे चुनाव में हमारे नेता सत्ता के लिए लिए सारी मर्यादाओं का चीर हरन करते आ रहे हैं।

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