राजनीति की फैक्ट्री से तैयार होकर मीडिया के बाजार में बिक रही समाजसेवा से डरिए, यह आपकी सोच पर कब्जा कर लेगी

 रणघोष खास. प्रदीप नारायण


जिस मीडिया का काम आजाद आवाज बुलदं करने का है वह डाकिए का काम कर रहा है। मेल- वाटसअप पर असली- नकली प्रेस नोट आया, सरसरी नजर दौड़ाई और काम के चौतरफा दबाव के बीच उसे हैसियत के हिसाब से प्रकाशित कर दिया। जिसे ठीक जगह मिल गई उससे अगले प्रेस नोट आने तक बेहतर संबंध रहेंगे। जिसकी खबर छप गई फोटो नहीं लग पाई तो संबंधों में थोड़ा सा हलकापन आ जाएगा। किसी वजह से प्रेस नोट नहीं छप पाया तो मान लिजिए संबंधों में दरार ने जगह बना ली है। इस दौरान प्रेस नोट बनाते समय  पत्रकार की आत्मा जाग जाए और थोड़ी मेहनत कर ईमानदारी से कोई स्टोरी एक्सपोज कर दे। समझ जाइए पत्रकारिता की सांसें अभी चल रही हैं। यही हाल आजकल के नेताओं का है। जो अखबार की सुर्खियों में नहीं है वो नेता नहीं। जिसे आए दिन किसी ना किसी बहाने कवरेज मिले समझ लिजिए उसकी राजनीति की फैक्ट्री में समाजसेवा के नाम का उत्पादन सही हो रहा है। कुल मिलाकर कोरोना काल में मौजूदा हालात से निपटने के लिए मीडिया ओर राजनीति की जो जिम्मेदारी होनी चाहिए थी उसमें दोनो तंत्र नाकाम साबित हुए हैं। सत्ता- विपक्ष के नेताओं को मिलकर पूरी तरह स्वास्थ्य सेवाओं पर फोकस करना चाहिए था। बजाय ऐसा करने के आपसी होड़ के चलते मास्क- सेनेटाइजर बांटने शुरू कर दिए। एक दूसरे पर कीचड़ उछालना शुरू कर दिया। समाजसेवा के नाम पर सुबह- शाम भोजन सेवा शुरू कर दी। कोई पूछे क्या कोरोना काल में भूख से किसी की मौत हुई है। जो कोरोना संक्रमित है क्या उनके परिजनों ने उससे संबंध खत्म कर लिए हैं।  नेता ऐसा क्या कर रहे हैं जो कोरोना मरीज के परिजन नहीं कर सकते। दूसरा पिछले एक साल से मास्क- सेनेटाइजर बांटे जा रहे हैं। भंयकर तरीके से मीडिया में ऐसे कवरेज हो रही है मानो नेताजी ऐसा नहीं करते तो यह वायरस घर- घर में प्रवेश कर जाता। क्या कोई नेता किसी मेडिकल स्टोर पर यह जानने के लिए पहुंचा कि जो दवाइयां दी जा रही है उसकी सही कीमत ली जा रही है या नहीं। कोई विधायक या मंत्री किसी प्राइवेट अस्पताल में इलाज के नाम पर हो रही लूट के सच को जानने के लिए मौके पर पहुंचा। नकली दवाईयों का खेल चला। किसी ने आवाज उठाईं। असल में जनप्रतिनिधियों का यही असली दायित्व था। मीडिया में आधी से ज्यादा खबरें नेताओं के कार्यक्रमों एवं आरोप- प्रत्यारोप में खप रही है। बची जगह पर सरकारी कवरेज और सामाजिक संगठनों का कब्जा हो जाता है। कहीं गलती से किसी कोने में प्रेरित करने वाली कहानी मिल जाए तो समझ लिजिए उम्मीद अभी जिंदा है। दरअसल उनमुक्त आवाज़ की जगह सिमट गई है। आप स्वतंत्र पत्रकार हैं, कहना ख़तरनाक हो गया है। ऐसे पत्रकार ग़ायब हो गए हैं। समाचार संस्थाओं ने गहराई से की जाने वाली रिपोर्टिंग बंद कर दी है। हालात ऐसे बनते जा रहे हैं कि आलोचनात्मक रिपोर्टिंग बंद हो गई है। 

 सच बताने के लिए कोई बचा नहीं है। नागरिकों को अज्ञानी बनाया जा रहा है।  उन्हें कुछ पता नहीं है। लोगों की आंखें अंधी हो गई हैं, उनके कान बहरे हो गए हैं और उनके मुंह में कोई शब्द नहीं हैं। आलोचना का अधिकार सिर्फ पार्टी के पास है। खोजी पत्रकारिता को सिस्टम की कमियों को ठीक करने के मौके के रूप में नहीं देखा जाता है।  फिल्ड में जाकर मेहनत से खोज कर लाई गई रिपोर्टिंग बंद होती जा रही है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है ताकि कोई ख़बर सीधे असरदार नेताओं या प्रभाव रखने वाले किसी शख्स  से भिड़ जाए। मुख्यधारा की ज़्यादातर मीडिया संस्थानों के यहां यही हो रहा है। कुछ छोटी संस्थाएं और कुछ जुनून पत्रकारों की वजह से ख़बरें यहां वहां से छलक कर जाती हैं लेकिन धीरेधीरे अब वो भी कम होती जाएंगी।

  आप ग़ौर करें। किस तरह अख़बार नींद की गोली खिलाते हैं और चैनल दर्शक और पाठक का गला रेंत देते हैं। आज आप इन बातों को खारिज करेंगे लेकिन याद करेंगे एक दिन।

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