अस्पताल में अब बिस्तर आराम से मिल जाएगा, इस सोच से नफरत करनी पड़ेगी

कहा भी जाता है कि आपदा में ही किसी के चरित्र की पहचान या परख होती है। स्वतः सहायता या सेवा का भाव किसमें है और किसे उसके लिए बहुत कोशिश करनी पड़ती है फिर भी वह सेवा की प्रदर्शनी होकर ही रह जाती है? जब केंद्र सरकार ने अपनी पीठ मोड़ ली तो समाज से कौन ख़ुद ब ख़ुद सामने आए?


 रणघोष खास. एक भारतीय की कलम से


एम्बुलेंस के सायरन की आवाज़ों से अब थोड़ी राहत की साँस ले पा रहे हैं। श्मशान खाली हैं और कब्रों की खुदाई करनेवालों के हाथों को कुछ आराम है। हस्पतालों में भी बिस्तर अब मिल जाएंगे। तो क्या हम इसे प्राकृतिक चक्र मानकर बैठ जाएँ? कितने लोग इस बीच गुज़र गए, उनके बारे में सोचने की जहमत कौन ले? क्या उनका यों जाना कुदरत की मर्जी थी? क्या जैसी हम भारतीयों की आदत है, हम जो बचे रह गए हैं, यह कहकर मन को तसल्ली दे लेंगे कि यह जनसंख्या कम करने का, पृथ्वी का बोझ घटाने का प्रकृति का अपना तरीक़ा था? अपने अलावा हर किसी को अतिरिक्त मानने की स्वार्थी प्रवृत्ति क्या मरनेवालों को ही उनकी मृत्यु के लिए ज़िम्मेवार मानकर उस ऊपरवाले का शुक्रिया अदा करेगी कि उसने उसे ज़िन्दगी बख्श दी? या वह कर्म के सिद्धांत की आड़ लेकर अगले दिन की प्रतीक्षा करेगी?  जनसंख्या का तर्क अभी से पेश किया जाने लगा है। यह कि हम हैं ही इतने ज़्यादा, कोई भी सरकार क्या कर सकती है? इसमें भी इशारा भारत की एक ख़ास जनसंख्या की तरफ़ है। चूँकि हम अनावश्यक रूप से अधिक हैं, अगर मौतों की संख्या भी अधिक हो तो क्या आश्चर्य? आख़िर प्रकृति कुछ तो करेगी? इन तर्कों में सरकार को इस तबाही की ज़िम्मेदारी से बरी करने की व्यग्रता दिखलाई पड़ती है। एक तरफ़ तो हम सरकार और इस आपदा के बीच किसी रिश्ते से इंकार करते हैं, दूसरी तरफ़ देश के गृह मंत्री अचानक प्रकट होकर राष्ट्र को सन्देश देते हैं कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में हमने कोरोना वायरस के संक्रमण की दूसरी लहर को काबू कर लिया है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अपने राज्य को कोविड से सुरक्षित प्रदेश घोषित कर दिया है। यह शेखी ही हमें इस दलदल में ले आई, यह पूरी दुनिया बता रही है। अभी दो रोज़ पहले अमर्त्य सेन को एडम स्मिथ के हवाले से बताना पड़ा कि अगर आप अच्छा काम करेंगे तो निश्चय ही श्रेय आपको मिलेगा। श्रेय जितना आपको मिले वह आपके अच्छे काम का सूचक होगा। लेकिन आपकी प्रवृत्ति अगर काम करने की नहीं जिससे श्रेय मिले बल्कि मात्र अपने लिए प्रशंसा बटोरने की हो तो उससे विनाश ही होगा। इसमें जोड़ा जा सकता है कि यह नुक़सान कम होता है जब यह किसी व्यक्ति का मामला हो। लेकिन जब सरकारें और राजनीतिक नेता इस व्याधि के शिकार हो जाएँ तो विनाश उनका नहीं देश और जनता का होता है।

तो इस साल दूसरी बार सरकार के मुखिया लोग ख़ुद को श्रेय दे रहे हैं। इसका इन्तज़ार किए बिना कि कोई और या जनता ही उनके काम के लिए उनकी तारीफ़ करे। यह सब कुछ इतना दयनीय और अश्लील है कि इस पर बात करते भी घिन आती है। जो प्रधानमंत्री आपदा का प्रबंधन करने में बुरी तरह नाकाम साबित हुआ, वह अब और कोई उपाय न देखकर स्कूल बोर्ड की परीक्षा स्थगित करने के फ़ैसले के लिए देश भर से तारीफ़ें बटोर रहा है। स्कूली छात्रों को प्रशासन ने हिदायत दी है कि वे प्रधानमंत्री को धन्यवाद का पत्र लिखें, धन्यवाद देते हुए वीडियो बनाएँ और उन्हें ट्वीट करें। “इस कठिन समय में छात्रों के साथ खड़े होने के लिए और परीक्षा रद्द करने के लिए मैं प्रधानमंत्री मोदीजी को धन्यवाद देती हूँ।” अपनी स्कूल की पोशाक पहनकर एक छात्रा ने ट्वीट किया। ऐसा ही अनेक दूसरे छात्रों से करवाया गया। जब एक के बाद दूसरा उच्च न्यायालय केंद्र सरकार कोरोना वायरस संक्रमण की विभीषिका में बदइंतज़ामी और आपराधिक लापरवाही के लिए केंद्र सरकार को फटकार रहा हो, जब सारी दुनिया सरकार के दंभी नाकारापन के लिए उसकी आलोचना कर रही हो, उस वक़्त अपने मातहत केंद्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों के प्रशासन के ज़रिए छात्रों से अपने लिए प्रशंसा उगलवाना इसी सरकार के बस की बात है जो अभी कुछ वक़्त पहले ही ख़ुद अपनी पीठ थपथपा रही थी कि उसने बिना टीके के कोरोना संक्रमण को रोक दिया है! अब टीके के लिए पूरे देश में हाय-हाय मची है तो यह सरकार स्कूली छात्रों से ही अपने लिए प्रशंसा का दोहन करने में जुट गई है। तुलनात्मक अध्ययन हमेशा किसी स्थिति को समझने के लिए अच्छा होता है। इसी देश में केरल के मुख्यमंत्री हैं जिनकी सरकार के सुप्रबंधन के लिए पूरी दुनिया तारीफ़ कर रही है लेकिन आपने उन्हें ख़ुद या उनके किसी मंत्री को युद्ध जीत लिया, मैदान मार लिया जैसी भाषा में बात करते नहीं सुना होगा। एक भी आत्मप्रशंसा का वक्तव्य नहीं। वे लगातार चुनौतियों की बात कर रहे हैं। जनता को स्थिति की गंभीरता बता रहे हैं। कोई सतही या हल्की बयानबाज़ी न केरल से सुनाई पड़ी और न मुंबई या महाराष्ट्र से।  कहा भी जाता है कि आपदा में ही किसी के चरित्र की पहचान या परख होती है। स्वतः सहायता या सेवा का भाव किसमें है और किसे उसके लिए बहुत कोशिश करनी पड़ती है फिर भी वह सेवा की प्रदर्शनी होकर ही रह जाती है? जब केंद्र सरकार ने अपनी पीठ मोड़ ली तो समाज से कौन ख़ुद ब ख़ुद सामने आए? खालसा एड हो या गुरुद्वारे हों या मस्जिदें भी, सबने हाथ बढ़ाया। जो अपनी सेवा का ढिंढोरा पीटता रहता है, वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नदारद था। भारतीय जनता पार्टी ने अपने स्थापना दिवस को सेवा दिवस घोषित किया। उस दिन दर्जन भर भाजपा नेता एक करीने से सजाई एक टोकरी में हाथ लगाकर एक महिला पर सेवा उड़ेलते तस्वीर में दिखलाई दिए। यह भी ठीक ही था। घृणा जिनका स्वभाव और जीवन भर की शिक्षा है, सेवा के लिए अनिवार्य मानवीयता वे आख़िर कहाँ से लाएँ? सेवा उनके लिए एक आयोजन है, रोजमर्रा की चीज़ नहीं, उनकी राजनीति का अंग नहीं। 

भारत के लोगों को इस संक्रमण ने बहुत महँगी सीख दी है। प्रश्न यह है कि क्या वे कर्मवाद, भाग्यवाद और बहुसंख्यकवाद से मुक्त होकर इस सीख को याद रख पाएँगे और उससे अपनी आगे की जनतांत्रिक ज़िम्मेवारी तय कर पाएँगे?

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