अपनी कमज़ोरियों पर क्यों आंखें मूंद रही है कांग्रेस?

रणघोष खास. युसुफ अंसारी


केंद्र में मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के 2 साल पूरे हो चुके हैं। पश्चिम बंगाल समेत पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों को क़रीब दो महीने बीत चुके हैं। अगले साल फरवरी-मार्च में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में विधानसभा चुनाव होने हैं। सभी राजनीतिक दल इनकी तैयारियों में जोर-शोर से जुटे हुए हैं लेकिन कांग्रेस की तैयारियों का कुछ अता-पता नहीं चल रहा।इस बीच 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर भी हलचल शुरू हो चुकी है ममता बनर्जी विपक्षी नेताओं को एकजुट करने में लगी हुई हैं। शरद पवार की अगुवाई में उन्होंने विपक्षी दलों को एकजुट करने की मुहिम छेड़ रखी है। चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर इसमें अहम भूमिका निभा रहे हैं। हाल ही में दिल्ली में विपक्षी नेताओं की बैठक हुई। इस पूरी क़वायद में कांग्रेस कहीं नजर नहीं आ रही। ऐसा लग रहा है कि 7 साल पहले केंद्र की सत्ता गंवाने और कई राज्यों में लगातार मिली हार के बाद कांग्रेस अब मुख्य विपक्ष के रूप में भी अपनी प्रासंगिकता खोती जा रही है।

कांग्रेस की अनदेखी

आज कांग्रेस की हालत बेहद ख़राब है। कांग्रेस की सबसे बड़ी कमज़ोरी उसका नेतृत्व विहीन हो जाना है। दो साल से ज्यादा वक़्त से कांग्रेस पूरी तरह नेतृत्व विहीन है। राहुल गांधी ने 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद हुई पहली कार्यसमिति की बैठक में अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। लाख मान मनोव्वल के बावजूद वो अध्यक्ष पद पर दोबारा आने को तैयार नहीं हुए। उसके बाद अगस्त में सोनिया गांधी को नए अध्यक्ष चुने जाने तक के लिए अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया था। लेकिन दो साल से ज्यादा बीत जाने के बावजूद कांग्रेस नया अध्यक्ष नहीं चुन पाई है। पार्टी में ज्यादातर लोग राहुल गांधी को ही दोबारा अध्यक्ष की जिम्मेदारी देना चाहते हैं, लेकिन राहुल दोबारा से अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभालने को लेकर कभी हां कभी ना की स्थिति में हैं।

अंदरूनी बग़ावत

कांग्रेस में केंद्रीय स्तर पर और राज्यों में समय-समय पर होने वाली अंदरूनी बग़ावत उसकी दूसरी बड़ी कमज़ोरी है। इसका कोई समाधान नहीं निकालना, उससे भी बड़ी कमज़ोरी है। पिछले साल अगस्त में कांग्रेस के 23 नेताओं ने सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखकर पार्टी को एक ‘फुल टाइम’ और ‘काम करने वाला’ नेतृत्व देने की मांग की थी। इस चिट्ठी पर जमकर बवाल हुआ। चिट्ठी लिखने वाले नेताओं को जी-23 ग्रुप कहा जाता है। इन्हें नेहरू-गांधी परिवार का विरोधी तक माना गया। चिट्ठी लिखने वाले कई वरिष्ठ नेताओं को उनको दी गई जिम्मेदारियों से वंचित भी किया गया। उनकी बातें तक नहीं सुनी गईं। उनके उठाए मुद्दों पर ग़ौर करने के बजाय उन पर बीजेपी के इशारे पर चिट्ठी लिखने का आरोप लगाया गया। लेकिन समस्या का समाधान निकालने की दिशा में कोई ठोस क़दम नहीं उठाया गया।

टूट और बिखराव

केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस के पूरी तरह नेतृत्व विहीन हो जाने के बाद पार्टी में अलग-अलग राज्यों में बिखराव और टूट का सिलसिला जारी है। जहां पार्टी सत्ता में है वहां वह कई गुटों में बंटी हुई है। एक गुट दूसरे से सत्ता हासिल करने के लिए आलाकमान पर दबाव बना रहा है। ताजा मामला पंजाब और राजस्थान का है। राजस्थान में सचिन पायलट लगातार बाग़ी तेवर अपनाए हुए हैं। वहीं, पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह और बीजेपी से आए नवजोत सिंह सिद्धू के बीच जमकर रस्साकशी चल रही है। अभी दोनों राज्यों में बीच-बचाव हो गया है। ये तात्कालिक समाधान है स्थाई नहीं।

बिछड़े बारी-बारी

इससे पहले पार्टी मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के पाला बदलने से अपनी सरकार गवां चुकी है। उत्तर प्रदेश में जितिन प्रसाद पार्टी छोड़कर बीजेपी का दामन थाम चुके हैं। आशंका है कि देर सबेर सचिन पायलट भी यही रास्ता अपना सकते हैं। पंजाब में आलाकमान अमरिंदर सिंह और सिद्धू के बीच फ़िलहाल तालमेल बैठाने में कामयाब हो गया है। ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि अगर सिद्धू से किए गए वादे पूरे नहीं किए जाते तो वो आम आदमी पार्टी का दामन थाम सकते हैं। कांग्रेस में आने से पहले भी उन्होंने अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया से मुलाकात की थी। आम आदमी पार्टी को आज भी सिद्धू में पंजाब का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार दिखता है। यह लालच इतना बड़ा है कि सिद्धू कांग्रेस का हाथ छोड़कर केजरीवाल की झाड़ू थाम सकते हैं।

न चिंता, न चिंतन

ऐसा लगता है कि कांग्रेस को अपनी हालत सुधारने की ना तो चिंता है और ना ही किसी स्तर पर चिंतन चल रहा है। 18 दिसंबर को चिट्ठी विवाद निपटाने और नए अध्यक्ष चुने जाने को लेकर कार्यसमिति की अहम बैठक बुलाई गई थी। इसमें आलाकमान और चिट्ठी लिखने वाले नेताओं के बीच से सुलह-सफाई की कोशिश हुई। इसी बैठक में राहुल गांधी ने पार्टी की तरफ़ से दी जाने वाली कोई भी जिम्मेदारी संभालने को लेकर हामी भरी थी। बैठक में यह भी यह तय पाया गया कि भविष्य की राजनीतिक दिशा तय करने के लिए पार्टी जल्द ही पचमढ़ी और शिमला की तर्ज पर चिंतन शिविर बुलाएगी।

कब लगेगा चिंतन शिविर?

चिंतन शिविर जनवरी-फरवरी में बुलाया जाना था लेकिन अभी तक इसका कुछ अता-पता नहीं है। इस बैठक में अध्यक्ष पद के चुनाव को पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव तक के लिए टाल  दिया गया था और यह तय किया गया था कि चुनाव जून में कराए जाएंगे। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद फिर से हुई कार्यसमिति की बैठक में चुनाव को एक बार फिर टाल दिया गया।

वैचारिक दुविधा

कांग्रेस एक अरसे से वैचारिक दुविधा में फंसी है। कई राज्यों में वह यह तय कर पाने में नाकाम रहती है कि उसे किस पार्टी के साथ जाना है। मिसाल के तौर पर हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में केरल में कांग्रेस वामपंथी दलों के मुकाबले चुनाव लड़ रही थी, जबकि पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों के साथ-साथ इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आईएसएफ़) के साथ भी उसने गठबंधन किया था। इसके अलावा असम में उन्हीं बदरुद्दीन अजमल की जोड़ी के साथ कांग्रेस ने गठबंधन किया जिसके खिलाफ 2011 के चुनाव में कांग्रेस ने यह प्रचार करके चुनाव लड़ा और जीता था कि अगर बदरुद्दीन अजमल को वोट दिया गया तो एक मुसलमान प्रदेश का मुख्यमंत्री बनेगा। इसे लेकर कांग्रेस की फ़जीहत हुई थी और बीजेपी ने कांग्रेस पर सांप्रदायिक ताकतों से हाथ मिलाने का आरोप लगाया था। वही, कांग्रेस के अंदर भी आनंद शर्मा जैसे नेताओं ने आईएसएफ़ के साथ तालमेल पर गंभीर सवाल उठाए थे। चुनाव के बाद वामपंथी दलों ने माना है कि कांग्रेस और आईएसएफ़ के साथ गठबंधन करना उनकी एक बड़ी भूल थी। इससे उन्हें चुनाव में भारी नुकसान हुआ है।

किसने किया गठबंधन का फ़ैसला

कांग्रेस के कई केंद्रीय नेता इस गठबंधन को शुरू से ग़लत मानते थे। हालांकि पार्टी में किसी मंच पर इस पर चर्चा नहीं हुई। इसलिए उन्हें अपनी राय रखने का मौक़ा नहीं मिला। पार्टी के नेताओं को यह भी नहीं पता कि किसके कहने पर किसने यह गठबंधन किया। लिहाजा इस गठबंधन को करने की जिम्मेदारी किसकी है यह भी तय नहीं है क्योंकि राहुल गांधी तो अब अध्यक्ष हैं नहीं और सोनिया गांधी सिर्फ अंतरिम अध्यक्ष हैं।

यूपी की उलझन

सात महीने बाद फरवरी-मार्च में उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं। कांग्रेस की इन चुनावों को लेकर फिलहाल कोई तैयारी नहीं दिखती है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस हर बार की तरह इस बार भी असमंजस की स्थिति में है। वो यह तय नहीं कर पा रही है कि उसे चुनाव अकेले अपने दम पर लड़ना है या किसी के साथ गठबंधन करना है? अगर गठबंधन करना है तो किसके साथ करना है? उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का ही असमंजस पिछले 25 साल से बना हुआ है।

नाकाम गठबंधन

1996 में कांग्रेस ने बीएसपी के साथ गठबंधन किया था। सिर्फ 125 सीटों पर चुनाव लड़ा और 33 सीटें जीती थी। 2002 में अकेले चुनाव लड़कर 25 सीटें जीती। 2007 में भी अकेले चुनाव लड़ा और लगभग इतनी ही सीटें जीती। 2012 में राष्ट्रीय लोक दल के साथ चुनाव लड़ कर भी लगभग इतनी सीटें जीती। लेकिन 2017 में समाजवादी पार्टी के साथ चुनाव लड़ा और सिर्फ 7 सीटों पर सिमट कर रह गई। फिलहाल ना अखिलेश कांग्रेस के साथ गठबंधन के मूड में हैं और ना ही मायावती। कांग्रेस छोटी-मोटी पार्टियों के साथ गठजोड़ के सहारे अपना वजूद बनाए रखने की कोशिश कर रही है। लेकिन इसमें कितनी कामयाबी मिलेगी अभी कुछ कहा नहीं जा सकता।कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि जब तक कांग्रेस अपनी कमज़ोरियों पर आंखें मूंदे बैठी रहेगी तब तक उसका कायाकल्प नहीं हो सकता।

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