– हमने शिक्षा के मूल स्वरूप को ऐसी दो आकृतियों में बदल दिया है जो दूर से तो एक नजर आती है लेकिन करीब आते ही एक दूसरे को छल रही है।
हम भारतीय कितनी चालाकी से अपनी जिम्मेदारियों के प्रति जवाबदेही से बचने का रास्ता निकाल लेते हैं। इसे हर साल होने वाली ऐसी दो परीक्षाओं के घोषित परिणामों से आसानी से समझ सकते हैं। पहला राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली कक्षा 10 वीं व 12 वीं की के बोर्ड परीक्षा परिणाम दूसरा यूपीएससी सिविल सेवा की चयनित उम्मीदवारों की जारी मैरिट सूची । ऐसा लगेगा जैसा हमने शिक्षा के मूल स्वरूप को ऐसी दो आकृतियों में बदल दिया है जो दूर से तो एक नजर आती है लेकिन करीब आते ही एक दूसरे को छल रही है। कक्षा 10 वीं व 12 वीं के परीक्षा परिणामों पर ईमानदारी से मंथन करिए। टॉप आने वाला विद्यार्थी हर विषय में 100 में से 100 नंबर प्राप्त कर रहा है। क्या यह किसी भी लिहाज से संभव है। इस पर रिसर्च होना चाहिए। दूसरी तरफ देश की सबसे कठिन परीक्षाओं में से एक यूपीएससी के रजल्ट पर गौर करिए। इस साल श्रुति शर्मा ने 54.56 प्रतिशत अंकों के साथ में टॉप किया है। इसके बाद अंकिता अग्रवाल ने 51.85 प्रतिशत अंक के साथ दूसरा स्थान हासिल किया है। इस भर्ती परीक्षा में हर साल करीब 8 लाख युवा बैठते हैं। अब सवाल यह उठता है कि हर साल कक्षा 10 वीं से 12 वीं में 90 प्रतिशत से ज्यादा अंक प्राप्त करने वाले हजारों- लाखों विद्यार्थियों में अधिकांश यूपीएससी की पहली परीक्षा से ही बाहर क्यों हो जाते हैं। इससे उलट यूपीएससी में चयनित हुए आधे से ज्यादा युवाओं का स्कूली रिपोर्ट कार्ड बेहद औसत स्तर रहता है। इसलिए अपने बच्चों के रिपोर्ट कार्ड में 100 में से 100 नंबर देखकर इतराने वाले माता-पिता से हाथ जोड़कर विनती है कि वे अपने बच्चों को खत्म होने से बचा ले। ये नंबर नहीं छलावा- झूठ- फरेब की स्याही से लिखा हुआ सरासर धोखा है। जिसका टेंडर उन बाजारू गुरुजनों ने लिया हुआ है जिनकी नजर में छात्र नंबरों का पैकेज बन चुके है जिसे बेचकर वे अपना शिक्षा का बाजार खड़ा कर सके। नंबरों की काली कोठरी में तड़फड़ा रहे बच्चे यह लेख पढ़े तो तुरंत अपने माता-पिता, दादा- दादी के पास जाकर बैठ जाए। उनसे पूछे जब उन्होंने पढ़ाई की थी उस समय अधिकतम नंबर कितने आते थे। हैरान हो जाएंगे। सभी विषयों में 60 प्रतिशत अंक हासिल करने वाला सुपर स्टार कहलाता था। उस समय भी डॉक्टर्स, आईएएस, इंजीनियर बनते थे। सबकुछ वहीं होता था जो आज हो रहा है। फर्क इतना है कि उस समय खामोशी के साथ मेहनत होती थी आज ड्रामेबाजी का शोर मचाकर। उस समय बेहतर शिक्षा को लेकर सुविधा बहुत कम थी। संघर्ष करने की क्षमता गजब की थी। आज शिक्षा ऊपर से लेकर नीचे तक सुविधाओं में नहाई हुई है। पसीने की महक गायब है। यह ईमानदारी से स्वीकार कर लेना चाहिए अपने पूर्वजों के समय में शिक्षा गंगाजल थी आज बाजारू गुरुजन उसे गंदा नाला बनाने में लगे हुए हैं। सिस्टम ने शिक्षा को सरकारी- प्राइवेट दो सौतेली बहनें बना कर छोड़ दिया है। जो श्रेष्ठता के नाम पर आपस में लड़ रही है। जो सरकारी गुरु है उनके पास बेहतर वेतन लेने व अपनी संतान को कामयाब करने के अलावा गर्व करने लायक कुछ नहीं है। जिन्हें हम प्राइवेट गुरु कहते हैं वह तब तक श्रेष्ठ है जब तक उन पर स्कूल मालिक की सीधी नजरें हैं। तीसरे ट्यूशन वाले गुरु हैं जो सरकारी- प्राइवेट की कोख से निकले हैं। तीनों के अलग अलग अंदाज ने बच्चों को शिक्षा के नाम पर खिलौना बनाकर रख दिया है। जो अपने हिसाब से चाबी घुमाकर नचा रहे है। नंबरों के खौफ, माता-पिता की डरा देने वाली उम्मीदों के चलते बच्चे जितना स्कूलों में पढ़कर आते हैं उतना ही समय ट्यूशन को दे रहे हैं। लिहाजा बेहताशा दबाव के चलते उनके चेहरे पर एक अजीब सी खामोशी, उदासी ने कब्जा कर लिया है। इस बदलाव के पीछे छिपे दर्द को महसूस करने के लिए माता-पिता के पास समय नहीं है। वे बच्चों को समय देने से ज्यादा सुविधा देने के लिए दिन रात संघर्ष कर रहे हैं। नतीजा देश में हर रोज 25 से 50 बच्चे शिक्षा की इस बाजारू दुनिया से विदा ले रहे हैं। इसलिए हाथ जोड़कर विनती है बच्चों को नंबरों से बने कागज का फूल बनने से बचा लिजिए जिसमें कोई सुगंध नहीं। जो गुरु गणित को छोड़कर अन्य विषयों में 100 में से 100 नंबर दे रहा है उसे शिक्षा का हत्यारा घोषित कर दीजिए। उससे नफरत करिए। वह बच्चों को मीठा जहर दे रहा है। अपने बच्चों को महान वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम, लता मंगेशकर जी जैसे अनेक महापुरुषों के जीवन सफर से रूबरू कराइए। बच्चों को वही बन दीजिए जो उनके दिलों दिमाग में जन्म ले चुका है। आइए हम सभी अपने अपने घर से यह शुरूआत करें..।