क्षेत्रीय दलों को नकार कर भाजपा से नहीं लड़ सकती कांग्रेस

रणघोष खास. अनिल जैन


कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश का कहना है कि राहुल गांधी की अगुवाई में शुरू हुई भारत जोडो यात्रा का मकसद कांग्रेस को मजबूत करना है न कि विपक्ष को जोड़ने के लिए। जयराम रमेश भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी के साथ चल रहे हैं और उन्होंने यह बयान यात्रा के केरल पहुंचने पर दिया है, जहां वामपंथी मोर्चा की सरकार है। यही बात उन्होंने न्यूज. पोर्टल सत्यहिंदी के संपादक आशुतोष के साथ एक साक्षात्कार में विस्तार से कही है।चूंकि उनके इस बयान का पार्टी के शीर्ष स्तर से कोई प्रतिवाद नहीं आया है, लिहाजा इसे कांग्रेस पार्टी का आधिकारिक बयान माना जाना चाहिए और साथ ही यह भी माना जा सकता है कि अपने इतिहास की सबसे दर्दनाक अवस्था से गुजर रही इस पार्टी के नेता अभी भी सुधरने, अपना अहंकार छोडने और गठबंधन राजनीति की अनिवार्यता को समझने के लिए तैयार नहीं हैं।दरअसल बात सिर्फ जयराम रमेश या उनके जैसे दूसरे कांग्रेस नेताओं की ही नहीं है, बल्कि समूची पार्टी और उसका नेतृत्व भी केंद्र में दस साल तक गठबंधन सरकार चलाने के बाद भी अभी तक इस हकीकत को पचा नहीं पा रहा है कि कांग्रेस के लिए अकेले राज करना अब इतिहास की बात हो गई है।कांग्रेस के नेताओं को लगता है कि जनता जब भी मौजूदा सरकार से पूरी तरह त्रस्त हो जाएगी तो खुद ब खुद कांग्रेस को सत्ता सौंप देगी। उनका यही अहसास उन्हें मौजूदा सरकार की तमाम जनविरोधी नीतियों, भीषण महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ मैदानी संघर्ष करने से रोकता है।अपने अहंकारी रवैये के चलते वे बाकी विपक्षी पार्टियों को हिकारत की नजर से देखते हुए यह भी भूल जाते हैं कि अब देश के सिर्फ दो राज्यों में ही कांग्रेस की सरकार है और दो बड़े राज्यों में वह क्षेत्रीय दलों के साथ बहुत छोटे से सहयोगी के दल के रूप में सत्ता में साझेदार है।विपक्षी एकता के बारे में जयराम रमेश का बयान कोई नया नहीं है। खुद राहुल गांधी भी अक्सर कहते रहते हैं कि सिर्फ कांग्रेस ही भाजपा से लड़ सकती है और उसकी विभाजनकारी राजनीति का मुकाबला कर सकती है।

हालांकि उसकी यह लड़ाई सिर्फ राहुल गांधी के भाषणों में और ट्विटर पर ही दिखती है, जमीन पर कहीं नजर नहीं आती। चार महीने पहले उदयपुर में हुए कांग्रेस के नव संकल्प शिविर में भी राहुल गांधी ने कहा था कि क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा को नहीं हरा सकतीं, क्योंकि उनके पास कोई विचारधारा नहीं है। राहुल गांधी का यह कहना तथ्यात्मक रूप से गलत और भ्रामक तो हैं ही, यह उन्हें राजनीतिक रूप से अपरिपक्व भी साबित करता है। मौजूदा समय की हकीकत है कि अपवाद स्वरूप दो-तीन राज्यों को छोड़ कर कांग्रेस कहीं भी अकेले के दम पर भाजपा का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है। कई राज्यों में वह खुद ही क्षेत्रीय पार्टियों पर आश्रित है और उन्हीं की ताकत के सहारे चुनाव लड़ती है। कांग्रेस इसलिए भाजपा से अकेले मुकाबला नहीं कर पा रही है क्योंकि उसके पास न तो संगठन की ताकत बची है और न विचारधारात्मक स्पष्टता, मैदानी संघर्ष से तो उसका कभी नाता नहीं रहा। दूसरी ओर क्षेत्रीय पार्टियां अपने दम पर भाजपा से लड़ सकती है और लड़ रही है।कांग्रेस के नेता भाजपा की राजनीति को विभाजनकारी तो बताते हैं लेकिन उसकी इस राजनीति को लेकर उस पर सीधे हमला करने या मैदानी संघर्ष करने से कतराते हैं। भाजपा की पूरी राजनीति सावरकर-गोलवलकर प्रणित हिंदुत्व की विचारधारा पर आधारित है, जो कि नफरत में डूबी विचारधारा है। लेकिन कांग्रेस यह कभी नहीं बताती कि हिंदुत्व की विचारधारा के बरअक्स उसकी विचारधारा क्या है।अब तो उसके नेता धर्मनिरपेक्षता का नाम लेने में भी संकोच करते हैं, जो कि हमारे संविधान का मूल तत्व है और जो वर्षों तक कांग्रेस की राजनीति का भी मूल आधार रही है। अलबत्ता राहुल गांधी जरूर अपने भाषणों में आरएसएस का नाम लेकर भाजपा को ललकारते रहते हैं लेकिन उनकी यह ललकार जमीनी स्तर पर कहीं नहीं दिखती और उनकी ललकार में पार्टी के दूसरे नेताओं के सुर भी शामिल रहते हैं। व्यावहारिक तौर पर तो रक्षात्मक रूख अपनाते हुए कांग्रेस भी भाजपा की तरह हिंदुत्व या नरम हिंदुत्व के रास्ते पर चल रही है।

कांग्रेस की इस ढुलमुल वैचारिकता के मुकाबले किसी भी क्षेत्रीय पार्टी की वैचारिकता ज्यादा स्पष्ट है। यही कारण है कि क्षेत्रीय पार्टियों में टूट-फूट नहीं हो रही है, जबकि कांग्रेस के नेताओं के पार्टी बदलने की खबरें रोजाना कहीं न कहीं से आती रहती हैं। यह कांग्रेस के वैचारिक तौर पर दिवालिया होने का सबूत है, जो इतनी बड़ी संख्या में उसके नेता पार्टी छोड़ रहे हैं।जहां तक भाजपा से हारने-जीतने की बात है तो उसकी हकीकत समझने के लिए किसी बड़ी बौद्धिक कवायद की जरूरत नहीं हैं। पिछले आठ साल में जितने भी चुनाव हुए हैं, उनमें भाजपा के विजय रथ जहां कहीं भी रूका है तो उसे क्षेत्रीय दलों ने ही रोका है। पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तेलंगाना, महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब, झारखंड आदि राज्य अगर आज भाजपा के कब्जे में नहीं है तो सिर्फ और सिर्फ क्षेत्रीय दलों की बदौलत ही। यही नहीं, बिहार में भी अगर भाजपा आज तक अपना मुख्यमंत्री नहीं बना पाई है तो इसका श्रेय वहां की क्षेत्रीय पार्टियों को ही जाता है। इनमें से कई राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों का कांग्रेस के प्रति सद्भाव रहा है, जो कांग्रेस के अहंकारी नेताओं के बयानों से खो सकता है। इस साल की शुरूआत में पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव तो कांग्रेस ने अकेले के बूते ही लड़े थे और उनमें उसकी क्या गत हुई है, यह भी राहुल गांधी और कांग्रेस के बाकी नेताओं को नहीं भूलना चाहिए। जहां तक भाजपा और उसकी सरकार की विभाजनकारी व जनविरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष की बात है, इस मोर्चे पर भी कांग्रेस का पिछले आठ साल का रिकॉर्ड बहुत खराब रहा है। इस दौरान अनगिनत मौके आए जब कांग्रेस देशव्यापी आंदोलन के जरिए अपने कार्यकर्ताओं को सड़कों पर उतार कर आम जनता से अपने को जोड़ सकती थी और इस सरकार को चुनौती दे सकती थी। लेकिन किसी भी मुद्दे पर वह न तो संसद में और न ही सड़क पर प्रभावी विपक्ष के रूप में अपनी छाप छोड़ पाई।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *