सड़क पर एक दूसरे की इज्जत उतारने वाले शिक्षक- आरटीए अधिकारी 24 घंटे में भाईचारे की मिशाल बने, ड्रामा खत्म

-इस तरह के घटनाक्रम पर समझौते होना सीधे तौर उस तर्कसंगत न्याय को खत्म करना है जो सार्वजनिक तौर पर कानून की आड़ में  गुंडागर्दी, मनमानी के तौर पर पैदा होता है।


रणघोष खास. सुभाष चौधरी


इस समाचार में प्रकाशित फोटो को गौर से देखिए। एक दिन पहले यहीं चेहरे बस स्टैंड पर सरेआम एक दूसरे की इज्जत को नीलाम कर रहे थे। मीडिया में दहाड़- दहाड़ कर एक दूसरे को नैतिकता, कानून एवं इज्जत का पाठ पढ़ा रहे थे। यहां तक की एक शिक्षक को धक्के मारकर, पीटकर पुलिस चौकी ले जाया गया। शिकायत में तो शिक्षकों ने आरटीए के अधिकारियों पर शराब पीने से लेकर कई गंभीर आरोप लगाए। गुरुवार सुबह एडीसी कार्यालय में दोनों पक्षों को बुलाया गया तो नजारा ही बदल गया। सास- बहु के झगड़े की तरह दोनों का समझौता हो गया। एक दूसरे से ऐसे हाथ मिलाते नजर आए मानो भारत- पाक सीमा विवाद का निपटारा करके लौट रहे हो।  मतलब पिछले 24 घंटों में सरकारी विभाग में जिम्मेदार पदों पर बैठे इन चेहरों ने ना केवल मीडिया का जमकर इस्तेमाल किया और साथ ही जिला प्रशासन में डीसी से लेकर अन्य अधिकारियों का भी तमाशा बनाए रखा।

समझौते की परिभाषा वहां तय होती है जहां निजी हितों के चलते हुए टकराव को शांत करने के लिए यह कदम उठाया जाता है। यह लड़ाई तो नियम का पालन करने या उसने तोड़ने को लेकर थी। इतना ही नहीं भरी सड़क पर एक दूसरे की इज्जत को उतारा गया। विडियो बनाकर वायरल की गईं। यह लड़ाई आरटीए की तरफ से मोटर व्हीकल एक्ट की परिपालना को लेकर थी जिसकी वजह से उन्हें विभाग में रखा गया है और लाखों रुपए वेतन के दिए जाते हैं। दूसरी तरफ इसी तरह यह मसला पूरी तरह शिक्षकों की गरिमा से जुड़ा हुआ था। जो शिक्षक बच्चों  को नैतिकता, मूल्य एवं अन्याय के खिलाफ लडने का पाठ पढ़ाए। वह पीटने व जल्लात झेलने के बाद समझौते की शक्ल में तब्दील हो जाए वह  गलत और सही की परिभाषा कैसे तय कर सकता है। रणघोष का इतना सबकुछ लिखने का मकसद एक दूसरे को उकसाना नहीं सही और गलत स्पष्ट तौर पर सामने लाना था जिसे समझौते की आड़ में छिपा लिया गया। अगर  इतना सबकुछ होने के बाद दोनों पक्षों में समझौता होता है तो यह सीधे तौर पर भद्दा मजाक के अलावा कुछ नहीं है। सरकारी शिक्षकों की यह प्रवृति पहली बार नजर नहीं आईं। अक्सर खुद के हितों पर जब इन पर हमला होता है तो ये नैतिकता- कर्तव्य एवं अधिकार का ढोल  बजाना शुरू हो जाते हैं। मीडिया इनकी आवाज नहीं उठाता तो उन्हें नसीहत, धर्म कर्म का पाठ पढ़ाने में सबसे आगे रहते। प्रशासन तुरंत एक्शन नहीं लेता तो कई तरह के गंभीर आरोप लगा देते। जब प्रशासन और मीडिया ने पूरे घटनाक्रम को निष्पक्षता के साथ सच के करीब पहुंचाने का प्रयास किया तो यहीं शिक्षक समझौते में तब्दील होकर अपने छिपे इरादों को पूरा कर गए। देखा जाए तो इस तरह के घटनाक्रम पर समझौते होना सीधे तौर उस तर्कसंगत न्याय को खत्म करना है जो सार्वजनिक तौर पर कानून की आड़ में  गुंडागर्दी, मनमानी के तौर पर पैदा होता है। इस समझौते से समझा जाए कि शिकायकर्ता पीड़ित शिक्षक ने जो भी आरोप लगाए वह झूठे थे। अधिकारी ने कोई शराब नहीं पी रखी थी। उसकी शर्ट गलती से फट गईं। इसी तरह आरटीए की तरफ से यह दावा किया गया कि ये बस स्टैंड से सवारी बैठाते हैं। राजस्व का नुकसान करते हैं। मतलब दोनों तरफ से शातिर, मतलबी अंदाज में ऐसा खेल किया गया जिसमें मीडिया व प्रशासन के अधिकारी इनकी कठपुतली बनकर रह गए।

क्या हुआ समझौते में आइए जानिए

आरटीओ की तरफ से आश्वासन दिया गया कि निजी वाहन में सवार शिक्षक को अब परेशान नहीं किया जाएगा। बताने पर उसे अपना प्रमाण दिखाना होगा। शिक्षकों ने कहा कि वे इसमें पूरा सहयोग करेंगे। जो चालान कट गया उसे भुगता जाएगा। इसे पर्दे के पीछे दोनों की तरफ से भुगता जाएगा या शिक्षक ही वहन करेंगे। इस बात को छिपाया गया। एक दिन पहले आरटीए अधिकारियों घटनाक्रम के बाद निवेदन की भूमिका में इसे खुद वहन करने की बात कही थी बशर्तें शिक्षक अपनी शिकायत वापस ले ले। चूंकि शिकायत वापस ले ली गई है। लिहाजा शिक्षकों के लिए मां सरस्वती से ज्यादा लक्ष्मी ज्यादा प्यारी रही हो। इसलिए मान गए। इस मीटिंग में केवल पांच शिक्षक शामिल हुए जबकि चालान 10 से ज्यादा शिक्षकों के काटे गए थे। यानि जो शिक्षक नहीं आए वे आरटीए की कार्रवाई से संतुष्ट थे। इस समझौते में एक बुजुर्ग ने विशेष भूमिका निभाईं जो शिक्षकों की तरफ से मौजूद थे।

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