रणघोष खास. प्रदीप नारायण
इस बात को ईमानदारी से स्वीकार कर लिजिए गांव की चौपाल से लेकर संसद तक भारत के लोग अब एक दूसरे से नफरत ज्यादा करने लगे हैं। ऐसा वे इसलिए करते हैं कि वे कल्पना करते हैं कि वे किसी दूसरी जाति के हैं और इसलिए वे दूसरे इंसान से एक काल्पनिक कारण से ज्यादा छोटे–ऊंचे और बेहतर हैं। ऐसी कल्पना करने वालों में पढ़े–लिखे वैज्ञानिक, डाक्टर इंजीनियर व अन्य व्यवसायिक डिग्रीधारियों की तादाद बेहिसाब बढ़ती जा रही है। इतना ही नहीं, ये पढ़े–लिखे लोग इस काल्पनिक जाति की रक्षा करने के लिए इसकी तरफदारी करने वाली राजनीति और घटिया दंगाई नेताओं को समर्थन देते हैं चंदा देते हैं और वोट देकर सत्ता सौंपते हैं। सनद रहे कि भारत की आज़ादी के समय तय हुआ था कि आज़ादी के बाद सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय की स्थापना की जाएगी। लेकिन आज जनता का एक समुदाय दूसरे समुदाय के साथ होने वाले अन्याय को समर्थन दे रहा है। भारतीय जनता तर्क करने में असमर्थ होती जा रही है। हम तेजी से काल्पनिक और झूठे प्रचार की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। अब साधारण सा भी तर्क सुनना नहीं चाहते, विचारना तो खैर दूर की बात है। समस्या सिर्फ जाति व धर्म के नाम पर राजनीतिक सत्ता पर कब्ज़ा कर लेने का नहीं है। डर इस बात का है कि गांव के पंच से लेकर राष्ट्रपति बनाने व बनने तक की चल रही मानसिकता ही पूरी सत्ता का का चरित्र बदला जा रहा है। भले ही पेट्रोल महंगा कर दो, आटा महंगा कर दो, हमें बर्बाद कर दो, हम तैयार हैं। बस जाति के नाम पर जिसका बस चले वह एक दूसरे पर हुकुमत और परेशान करता रहे। यह कड़वी हकीकत बन चुकी है कि सत्ता को पता है कि जनता इस नफरत को समर्थन दे रही है, इसलिए वह इसे और भी ज्यादा भड़काने में अपना हित देख रही है। नतीजा समाज टूटेगा, देश टूटेगा। दिमागों में धार्मिक और जातिवादी नफरत फैलाने वाले गायब हो जाएंगे। यदि हम स्वतन्त्र होने का दावा करते है और विश्व में अग्रणी देश बनाना चाहते है तो हमें अपने आचरण में जातिवाद की कुंठाओं को मिटाना ही होगा। भविष्य हमारा है और हमें ही इसके लिए सजग रहना है। क्या हम ऐसा कर पाने की ताकत जुटा पाएंगे ? ईमानदारी से अपने आप से यह सवाल जरूर कीजिए।