चुनाव जीतते दल, हारता लोकतंत्र

 रणघोष खास. कुमार प्रंशात


लोकतांत्रिक प्रसव वेदना से गुजर रहे दिल्ली, हिमाचल प्रदेश और गुजरात के गर्भ से चुनाव-परिणाम का जन्म हो चुका है। अब सारे सर्जन, डॉक्टर, नीमहकीम अपने आरामगाहों में लौट चुके हैं। जिन चैनलों की नाल कब की कट चुकी है, वे सब चुनाव परिणामों के विश्लेषण के नाम पर आपसी छीछालेदर में लगे हैं। यह छपने या सुनने वाले मीडिया के सबसे बदरूप चेहरे को बर्दाश्त करने का, सबसे शर्मनाक दौर है।

हर चुनाव में कोई दल जीतता है, कोई हारता है। इस चुनाव में भी यही हुआ है। लेकिन पार्टियां ऐसे दिखा रही हैं कि हारा तो दूसरा है, हमारे हिस्से तो जीत-ही-जीत आई है! आम आदमी पार्टी इसी का राग अलाप रही है कि इस चुनाव ने उसे राष्ट्रीय दल बना दिया है; कांग्रेस अपनी नहीं, दूसरों की हार का विश्लेषण करने में निपुणता दिखा रही है; भाजपा के प्रधान भोंपू ने इशारा कर दिया तो सारे भाजपाई एक ही झुनझुना बजा रहे हैं कि हमने सारे रिकार्ड तोड़ डाले! सबकी एक बात सही है कि सभी अपना झूठ छिपा रहे हैं।

चुुनाव परिणाम का कोई नाता अगर उस लोकतंत्र से भी होता हो कि जिसके कारण चुनावी राजनीति व संसदीय लोकतंत्र का अस्तित्व बना हुआ है, तो हमें यह खूब समझना चाहिए कि दल जीत रहे हैं, ‘हम भारत के लोग’ और उनका लोकतंत्र लगातार हारता जा रहा है। संविधान अब एक पुराने जिल्द की रामायण भर बची है जिसका राम कूच कर गया है। कौन, क्या जीता इसकी इतनी वाचाल चर्चा की जा रही है ताकि किसी को याद करने की फुर्सत न रहे कि हम कहां, क्या हार रहे हैं। हम चुनावों की संवैधानिक पवित्रता व उसका राजनीतिक अस्तित्व हार रहे हैं; हम चुनाव आयोग हार रहे हैं; हम चुनावों की आचार संहिता हार रहे हैं; हम बुनियादी लोकतांत्रिक नैतिकता हार रहे हैं। हम हर वह नैतिक प्रतिमान हार रहे हैं जिसके आधार पर हमारा संविधान बना है; हम हर वह लोकतांत्रिक मर्यादा हार रहे हैं जिसके बिना लोकतंत्र भीड़बाजी मात्र बन कर रह जाएगा। हर चुनाव में जातीयता जीत रही है, धार्मिक उन्माद जीत रहा है, धन-बल व सत्ता-बल जीत रहा है; झूठ व मक्कारी जीत रही है। यह तस्वीर को काली करने जैसी बात नहीं है; तस्वीर को ठीक से देखने-समझने की बात है।

गुजरात हम सबके लिए गहरे सबब का विषय होना चाहिए। इसलिए नहीं कि वह एक ही पार्टी को लगातार से चुन रहा है बल्कि इसलिए कि वह गर्हित कारणों से लगातार अविवेकी फैसला कर रहा है और देश की तमाम लोकतांत्रिक ताकतें मिल कर भी उसे इस मूर्छा से बाहर नहीं ला पा रही हैं। गुजरात उस हाल में पहुंचा दिया गया है जिस हाल में, यूरोप में कभी जर्मनी पहुंचा दिया गया था। जब जहर नसों में उतार दिया जाता है तब ही ऐसी अंधता जन्म लेती है. दुनिया ने भी और हमने भी ऐसी अंधता पहले भी देखी है बल्कि कहूं तो हमारी आजादी अंधता के ऐसे ही दौर में लिथड़ी हम तक पहुंची थी। गांधी ने ऐसे ही नहीं कहा था कि ऐसी आजादी में उनकी सांस घुटती है; और हम जानते हैं कि अंतत: उनकी सांस टूट ही गई। गुजरात में देश के गृह मंत्री कहते हैं कि 2002 में हमने यहां जो सबक सिखलाया, उसका संसदीय लोकतंत्र एक चीज है, संवैधानिक लोकतंत्र एकदम भिन्न चीज है। एक ढांचा है, दूसरी आत्मा है। आत्मा मार कर, ढांचा जीत लिया है हमने; और मरे हुए लोकतंत्र को बड़े धूमधाम से ढो रहे हैं। तभी तो हर असहमति को डांट कर कहते हैं : ‘वोट हमें मिला है!’ भीड़ की स्वीकृति लोकतंत्र की अंतिम कसौटी नहीं होती है। हम कैसे भूल सकते हैं कि हमारी गुलामी को भी भीड़ की स्वीकृति थी। आजादी की लड़ाई लडऩे वाले तब भी अल्पमत में थे। इसलिए लोकतंत्र की दिशा भीड़ को शिक्षित, जाग्रत जनमत में बदलने की होती है। हम सोचें कि हमारी आजादी की लड़ाई के गर्भ से अगर लोकतंत्र का जन्म नहीं हुआ होता तो चुनाव का यह सारा तामझाम भी नहीं होता न? तो बुनियाद कहें कि अंतिम कसौटी कहें, लोकतंत्र ही है कि जिसका संरक्षण-संवर्धन करना है। वह बना रहा, स्वस्थ व गतिशील रहा तो बाकी सारा कुछ रास्ते पर आ जाएगा। इसलिए कह रहा हूं कि इन चुनावों में पार्टियां जीती हैं, हम ‘भारत के लोग’ व हमारा लोकतंत्र हारा है। यह हार हमें बहुत महंगी पड़ेगी।

(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं। व्यक्त विचार निजी हैं)

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