रणघोष खास. प्रदीप नारायण l कोरोना से जंग बढ़ती जा रही है। ऐसा लगता है कि अब आर-पार का समय आ गया है। इंसान पहली बार खुद को असहाय महसूस कर रहा है। इसकी एक नहीं कई वजह है। वह खुद में कई हिस्सों में बंटा हुआ है।
राजनीति की भाषा में उसे धर्म- जाति का वोट बैंक कहते हैं। इसलिए हमें सावधान हो जाना चाहिए, यदि यही दशा रही, तो आने वाला कल काफी भयावह हो सकता है। वर्तमान में समाज के टूटते-फूटते रिश्ते, कट्टरता, असहिष्णुता, मतभेद, बिखराव के कारण शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का मामला जटिल होता जा रहा है, लेकिन इसका इलाज साफ नहीं दिखाई दे रहा है।
इस महामारी से भी कोई सबक नहीं लेना चाहता। अगर कोई प्रयास करता है तो राजनीति उस पर पानी फेर देती है। ऐसे में सभी विद्वानों, समाजशास्त्रियों और मानव हितैषियों का एक ही मत है कि अगर काेरोना से जीतना है तो हमें सोशल डिस्टेंस के साथ साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नींव को धार्मिक ग्रंथों, इतिहास की सकारात्मक घटनाओं, जियो और जीने दो जैसी उत्तम विचारधारा को भी मजबूत करना होगा।
कोरोना कहर में सांप्रदायिकता कमजोर नहीं हुई है वह अभी भी छिपकर मौके का इंतजार कर रही है। जाति- धर्म देखकर सामान खरीदने व दूरी बनाने की मानसिकता के आ रहे मामले इस वायरस से ज्यादा घातक परिणाम दे सकते है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत बहुलता में एकता की गौरवशाली परंपराओं का संरक्षक रहा है।
क्यों न हम कोरोना से मिलकर लड़ते हुए अपनी गौरवशाली परंपरा की ओर लौट आएं
सभी धार्मिक इकाइयों के समक्ष यह बात प्रस्तुत करनी चाहिए कि हम एक ऐसे देश में रहते हैं, जहां दर्जनों धर्म, सैकड़ों विचारधाराओं एवं परंपराओं को मानने वाले सदियों से रहते आए हैं। इसके बाद भी इस देश की खासियत रही है कि यहां शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की कोमल हवा का झरना निरंतर बहता रहा है। क्यों न हम कोरोना से मिलकर लड़ते हुए अपनी गौरवशाली परंपरा की ओर लौट आएं और आपसी एकता, अखंडता को अपनाते हुए एक-दूसरे के धर्म, विश्वास तथा रीति-रिवाज का ध्यान रखें। धर्म तो संयम तथा शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का सबसे बड़ा ध्वजवाहक है।
संयम और उदारता तो उसके जमीर में शामिल है। हम देश को हर लिहाज से मजबूत देखना चाहते हैं तो बहुत बुद्धिमानी से आगे बढ़ना होगा, तभी हम भारतीय बनकर इस देश में अपने लिए बेहतर माहौल की उम्मीद कर सकते हैं।