रणघोष खास. नितिन श्रीवास्तव, साभार बीबीसी
शनिवार को महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के आए नतीजों में ‘महायुति’ गठबंधन ने ज़बर्दस्त जीत हासिल की है, जिसमें सबसे अहम किरदार बीजेपी का रहा.149 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार 132 सीटें जीतने में कामयाब हुए, यानि बीजेपी के क़रीब 90 फ़ीसदी उम्मीदवारों ने जीत हासिल की है.इस जीत के पीछे मौजूदा ‘महायुति’ सरकार की मुख्यमंत्री ‘लाडकी बहिन’ योजना और प्रदेश में किसानों के लिए सब्सिडी के अलावा विकास के कार्यों पर तो विस्तार से बात भी हो रही है और विश्लेषण भी.
लेकिन इस जीत के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका को समझने की भी ज़रूरत है.
1. नारों को मतदाताओं तक पहुँचाना
महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में योगी आदित्यनाथ के नारों के पोस्टर लगाए गए. लेकिन ‘ बंटेगे तो कटेंगे’ नारे पर विवाद होने पर एक अन्य नारा दिया गया – ‘एक हैं तो सेफ़ हैं’.क़रीब एक महीने पहले महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव प्रचार अपने शबाब पर था.भारतीय जनता पार्टी ने अपने स्टार प्रचारकों में से एक यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी मैदान में उतार रखा था और उन्होंने ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ वाला एक विवादित नारा भी दे दिया था.मुंबई और कुछ दूसरे शहरों में ये नारे वाले पोस्टर रातोंरात लग गए थे और राज्य में कांग्रेस समेत कई विपक्षी पार्टियों ने इसे ‘सांप्रदायिक और भड़काऊ’ करार दे दिया था.नारे पर छिड़े विवाद के महज़ तीन दिन बाद नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हेडक्वार्टर में इस पर चर्चा चल रही थी. निष्कर्ष साफ़ था. बीजेपी को किसी भी क़ीमत पर महाराष्ट्र में सत्ता से बाहर नहीं होने देना है.आरएसएस महासचिव दत्तात्रेय होसबले ने अगले दिन कहा, ”कुछ राजनीतिक ताक़तें हिंदुओं को जाति और विचारधारा के नाम पर तोड़ेंगी और हमें न सिर्फ़ इससे सावधान रहना है बल्कि इसका मुक़ाबला करना है. किसी भी क़ीमत पर बंटना नहीं है”.संदेश शायद बीजेपी तक भी पहुंच चुका था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नया नारा दिया, ”एक हैं तो सेफ़ हैं”. कुछ राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे योगी आदित्यनाथ के नारे से जोड़ते हुए मगर ज़्यादा ‘असरदार’ बताया.राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अन्तर्गत काम करने वाले तमाम संगठनों में से दो ‘लोक जागरण मंच’ और ‘प्रबोधन मंच’ को इस बात की ज़िम्मेदारी दी गई कि वे घर-घर जाकर ‘एक हैं तो सेफ़ हैं’ वाले नारे का न सिर्फ़ मतलब समझाएं बल्कि ”हिंदुओं को आगाह करें कि अगर वे संगठित नहीं रहे तो उनका अस्तित्व ख़तरे में पड़ सकता है.”’बिज़नेस वर्ल्ड’ पत्रिका और ‘द हिंदू’ अख़बार के लिए लिखने वाले राजनीतिक विश्लेषक निनाद शेठ का मानना है, ”एक नारा अगर धार्मिक तर्ज़ पर था तो दूसरा अन्य पिछले वर्गों को एकजुट करने की मंशा वाला. नारों के मतलब सभी ने अलग-अलग निकाले लेकिन वो आम वोटर जो टीवी और सोशल मीडिया से दूर हैं उस तक संदेश पहुंच गया, ऐसा लगता है”.
2. कोर टी
इसी साल लोक सभा चुनाव में बीजेपी के नेतृत्व वाली ‘महायुति’ महाराष्ट्र की 48 लोक सभा सीटों में से महज़ 17 जीत सकी थी.राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार वीर सांघवी के मुताबिक़, ”लोक सभा चुनाव में न सिर्फ़ महाराष्ट्र बल्कि दूसरे बड़े राज्यों में भी आरएसएस काडर कम नज़र आ रहा था.”बीजेपी को इसका एहसास बखूबी रहा क्योंकि इस चुनाव में पार्टी ने न सिर्फ़ आरएसएस पर अपनी निर्भरता की बात दोहराई बल्कि चुनाव से जुड़े शीर्ष नेतृत्व को भी ध्यान से चुना गया.महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री और प्रदेश बीजेपी नेता देवेंद्र फडणवीस ने चुनावों से पहले ही कह दिया था, ”हमने वोट जिहादियों और अराजकतावादियों से लड़ने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मदद ली है.”देवेंद्र फडणवीस नागपुर के रहने वाले हैं जो आरएसएस का गढ़ है और उनके पिता गंगाधर फडणवीस स्वयंसेवक होने के साथ-साथ भारतीय जनता पार्टी के एमएलसी भी थे, जिन्हें बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और मौजूदा केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी अपना ‘राजनीतिक गुरु’ भी मानते हैं.बीजेपी ने महाराष्ट्र चुनाव में कुछ वैसा ही किया जो उसने हरियाणा में किया था. हरियाणा में चुनाव इंचार्ज अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से होकर उभरे धर्मेंद्र प्रधान को सौंपी गई थी.महाराष्ट्र में कमान भूपेन्द्र यादव और अश्विनी वैष्णव को दी गई. बीजेपी के वरिष्ठ नेता ने नाम न लिए जाने की शर्त पर बताया, ”वैष्णव ब्यूरोक्रैट रहे हैं और महाराष्ट्र जैसे धनी और फैले हुए राज्य में कैंपेन को ऑर्गनाइज़ करना ऐसे लोगों को बखूबी आता है. लेकिन भूपेन्द्र यादव का वहां चुनाव इंचार्ज बनना एक बड़ा फ़ैसला था जिसमें आरएसएस से पक्का बात की गई होगी.”उन्होंने आगे बताया, ”पेशे से वकील भूपेन्द्र, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद के महासचिव रह चुके हैं जिसे ‘आरएसएस लॉयर्स विंग’ के नाम से जाता है. कम लोगों को पता होगा कि बीजेपी के संगठन में उन्हें पहली बार जगह देने वाले ख़ुद नितिन गडकरी हैं जिन्होंने साल 2010 में अपने अध्यक्ष-पद पर कार्यकाल के दौरान भूपेन्द्र यादव को पहली बार महासचिव बनाया था.”इसके अलावा आरएसएस ने अपने पश्चिमी प्रांत के प्रमुख रहे अतुल लिमये को बीजेपी नेताओं बीएल संतोष और बीजेपी और आरएसएस के बीच कोऑर्डिनेटर अरुण कुमार के साथ मिलकर काम करने के लिए भी कहा.नतीजों में जीत हासिल होने के बाद आप में से बहुतों ने देवेंद्र फडणवीस को पार्टी के वरिष्ठ नेता और आरएसएस के सबसे क़रीब बताए जाने वाले नितिन गडकरी के घर जाकर उन्हें मुबारक़बाद देते हुए भी देखा ही होगा.लेकिन इस बात पर भी ग़ौर करना ज़रूरी है कि साल 2014, 2019 और 2024 के लोक सभा चुनावों में जहां नितिन गडकरी पर कैंपेन का दायित्व कम दिया गया. वहीं इस बार महाराष्ट्र में उनकी डिमांड बहुत ज़्यादा थी. प्रचार ख़त्म होने के आख़िरी 20 दिनों में ही उन्होंने 70 से ज़्यादा चुनावी रैलियाँ कीं.’द हितवाद’ अख़बार के राजनीतिक संवाददाता विकास वैद्य बताते हैं, ”ये एक संदेश भी था उस पुराने आरएसएस-बीजेपी वोटर के लिए कि सब साथ आओ, मिलकर दोबारा सरकार बनाओ जिसमें बीजेपी का सबसे अहम रोल रहे.”
3. शहरी मतदाताओं पर फ़ोकस
स्वयंसेवक संघ के दो प्रांत प्रचारकों से बात करने पर एक ‘टीस’ साफ़ दिखती है.2024 लोक सभा चुनावों में बीजेपी का ”अबकी बार 400 पार” का नारा ”अपने तमाम मतदाताओं को एक ऐसे कम्फ़र्ट ज़ोन में ले गया कि वे घरों से वोट करने ही नहीं निकले”.इस बात को ध्यान में रखते हुए प्रदेश के छोटे-बड़े शहरों में आरएसएस ने अपनी शाखाओं के ज़रिए पिछले चार महीने से ‘डोर-टू-डोर कैंपेन’ चलाकर लोगों को बीजेपी सरकार के ‘स्थायी विकास’ वाली बात को पहुँचाने में मदद की.महायुति के गठन में अजित पवार के आने से संघ बहुत खुश नहीं था लेकिन इस चुनाव में आरएसएस के लोग भी इस बात को भूल कर मुद्दों को लोगों तक पहुंचा रहे थे.पिछले लोक सभा चुनाव में हुए ‘औसत प्रदर्शन’ को इससे जोड़ कर देखने वाले संघ ने इस चुनाव में उसे दूर करने के लिए पार्टी को बधाई देते हुए अपनी पत्रिका ऑर्गेनाइज़र में लिखा है, ”लाडकी बहन” योजना, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में माओवाद से निपटना और किसानों के हित की बात करना इस बार कारगर साबित हुआ.”शहरी मतदाताओं और मध्यम वर्गीय वोटरों पर फ़ोकस दोबारा लाने का ही नतीजा था कि इस चुनाव ने साल 1995 के बाद से 66.05 फ़ीसदी यानी सबसे ज़्यादा मतदान दर्ज किया.
‘द इकनॉमिक टाइम्स’ अख़बार के लिए बीजेपी और आरएसएस कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार राकेश मोहन चतुर्वेदी के मुताबिक़, ”अर्बन या शहरी वोटरों पर आरएसएस का फ़ोकस ठीक वैसा ही था जैसा साल 2014 के आम चुनावों में देखने को मिला था.””इस तरह की वन-टू-वन कैंपेन में आपको कभी कोई भी किसी झंडे और बैनर या लाउडस्पीकर के साथ नहीं दिखेगा. बस आपके मोहल्ले या बूथ के आसपास का कोई व्यक्ति आपसे अक्सर मिलेगा और अपनी बात को बहुत आहिस्ता से बता देगा, जैसे रोज़मर्रा की मुलाक़ात होती है,बस.”उन्होंने आगे बताया, ”लेकिन ख़ास बात ये होती है कि इस तरह की कैंपेन जाति, धर्म या वर्ग से परे होती है. और जिस तरह बीजेपी ने सीटें जीती हैं वो इस बात को साफ़ दर्शा रही है”.
4. संघ प्रबंधन का रोल
इस लोक सभा चुनाव में प्रदेश में बीजेपी के प्रदर्शन से निराश आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व ने इस बार पहले से ही ‘अपना होमवर्क कर रखा था’.नागपुर में ‘द हितवाद’ अख़बार के राजनीतिक संवाददाता विकास वैद्य के अनुसार, ”बहुत ज़माने बाद मैंने संघ के स्तर पर इस तरह की माइक्रो-प्लानिंग देखी, जिसके तहत प्रदेश के बाहर से क़रीब 30 हज़ार लोगों को चुनाव में मदद के लिए अलग-अलग समय पर बुलाया गया.”
दरअसल पिछले लोक सभा चुनाव के औसत प्रदर्शन के बाद आरएसएस ने राज्य के हर ज़िले में एक कमेटी बनाई थी जिसने लोगों से मिलकर ये टोह लिया कि प्रदेश की महायुति सरकार में और क्या बेहतरी की जा सकती है.इस काम के लिए देश के कई राज्यों से संघ में काम करने के लिए लोग बुलाए गए, जिसमें पुरुष और महिलाएँ दोनों शामिल थे.ख़ास बात ये थी कि इसमें उत्तर में बीजेपी शासित राज्य जैसे; यूपी और मध्य प्रदेश के अलावा ग़ैर बीजेपी-शासित राज्यों के लोगों को भी बुलाया गया जो तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और हिमाचल प्रदेश जैस राज्यों से भी आए.विकास वैद्य के मुताबिक़, ”इन लोगों ने छोटे शहरों और ग्रामीण इलाक़ों में दौरे किए और मतदाताओं को बताया कि दूसरे राज्यो में जहां कांग्रेस या किसी अन्य पार्टी की भी सरकार है, वे कैसे अपने चुनावी वादों को भूल जाते हैं, जबकि बीजेपी महाराष्ट्र में महिलाओं को सशक्त करने के लिए कटिबद्ध है और इसका उदाहरण है ‘लाडकी बहन योजना’ से आने वाले पैसा.”
नागपुर में वरिष्ठ पत्रकार भाग्यश्री राउत के अनुसार, ”प्रचार के इस प्रोग्राम के तहत वोटरों को तीन श्रेणी में बांटा गया- कैटेगरी ‘ए’ में पारंपरिक बीजेपी वोटरों को रखा गया, मगर कैटेगरी ‘बी’ और ‘सी’ में निशाना उन वोटरों को बनाया गया जो बीजेपी के पक्के वोटर नहीं रहे थे”.उन्होंने आगे बताया, ”धीमे स्वर में ही सही लेकिन प्रचार ऐसे मुद्दों पर हुआ कि आख़िर ”देश के लिए राम मंदिर किसने बनवाया या बाबा साहेब आंबेडकर को भारत रत्न किस सरकार ने दिया था.”