रणघोष खास. प्रदीप हरीश नारायण
राजनीति में छोटे- बड़े नेताओं का कद तय करना अब समझ से बाहर हो रहा है। जिसे बड़े नेता कहते हैं वे चुनाव में टिकट को लेकर छीना झपटी करते नजर आ रहे हैं। अगर उन्हें ऐसा ही करना पड़ रहा है तो फिर छोटे नेता किसे कहे। सारांश यही निकल रहा है जिसके हिस्से में टिकट आ गई वह बड़ा नेता ओर जिसे नही मिली वह छोटा कहलाएगा।
इन दिनों हरियाणा में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस में खासतौर से टिकटों को लेकर दावेदारों में जबरदस्त घमासान मचा हुआ है। सोशल मीडिया, प्रिंट और चैनल वाले टिकटों की छोटी छोटी ब्रेकिंग न्यूज बनाकर उसे चुनाव के बाजार में डिमांड ओर सप्लाई के हिसाब से बेच रहे हैं। मार्निंग न्यूज में वे टिकटों का काउंटर लगाते हैं। दोपहर वाली अपडेट खबर में टिकटों का चार्ट जारी कर देते हैं। शाम वाले बुलेटिन में चार्ट पर टिकट कंफर्म या वेटिंग नजर आने लगती है। मजेदार बात देखिए रात होते ही लेट लाइट न्यूज में पता चलता है की टिकटों की फाइनल सूची अभी हाईकमान के पास पहुंचने वाली है। अगले दिन कभी भी इसका एलान हो सकता हैं.. ओर फिर मीडिया सुबह उठकर टिकटों का अपना नया काउंटर लगाना शुरू कर देता है। यह टिकटों का बाजार चुनाव की घोषणा से ही लगना शुरू हो जाता है।
ऐसा लग रहा है की लोकतंत्र में यह चुनाव ना होकर सब्जी बाजार है जिसमें सुबह के रेट ताजा होने पर ज्यादा होते हैं। शाम होते ही बासी सब्जी आधे से कम रेट में बिक जाती है। चुनावी कवरेज करने वालों को इतनी तो समझ होनी चाहिए की जब किसी को टिकट ही नही मिली तो उसकी कट कैसे गईं। जब मीडिया वालों को ही समय से पहले ही टिकटों की फाइनल सूची का पता चल जाता है तो राजनीतिक दलों का शीर्ष नेतृत्व गोपनीय रिपोर्ट का हवाला देकर कुछ भी कहने से इंकार क्यों कर देता है। ऐसे में सवाल उठता है की चुनाव में टिकट को लेकर तरह तरह की अफवाहें, चर्चा करने वाला असली बहरूपिया मीडिया है या वे नेता जो चाहे या अनचाहे चर्चा में बने रहने के लिए हवा में तीर चलाते रहते हैं। कुल मिलाकर समय से पहले टिकट को लेकर मचने वाला शोर राजनीति का बाजार तो खड़ा कर देता है लेकिन अपना भरोसा खत्म कर देता है। चुनाव पांच साल बाद होने हैं। इसलिए जनता भी भरोसे को उसी तरह भूल जाती है जिस तरह जीतने के बाद नेताजी जी अपनी आंखों का चश्मा बदल लेते है।