कलम कुछ कहती है..

मीडिया अब मीना बाजार है, कुछ भी छपवाइए साहब..


-छोटी सी घटना में इस्तेमाल होने वाले भूंकप, तुफान, सुनामी, हाहाकार, तांडव, सनसनी, दहल उठी धरती, जैसे डराने वाले शब्द अब अपनी हैसियत खो चुके हैं। सूचनाओं की दुनिया में शब्दों का सरेआम हो रहा चीरहरण मीडिया का हर रोज नया चरित्र सामने ला रहा है।


IMG-20221214-WA0006[1]रणघोष खास. प्रदीप नारायण


मीडिया में खबरें छपवाना अब उतना ही आसान है जितना कुलर में पानी डालना। छप गई तो ठंडा महसूस करेंगे नहीं तो गर्म हवाओं को बर्दास्त करिए। दूसरे लहजे में कहे तो मीडिया आज का मीना बाजार बन गया है। यहां सबकुछ छपेगा ग्राहक बनकर आइए तो सही। आगे लिखने से पहले मीना बाजार के सही अर्थ को समझ ले। मूल रूप से मीना बाजार एक ऐसे बाजार को कहा जाता है जहां पर महिलाएं ही दुकान लगाती हैं और महिलाएं ही खरीददारी करती हैं। इसका उद्देश्य महिलाओं को खुलकर खरीददारी करने हेतु सक्षम बनाना होता है ताकि वे पुरुषों की भीड़ में चलने की लज्जा से बच सकें। यह बाजार भारत में मुग़ल शासक अकबर के समय में शुरू हुआ था। लेकिन आज इस बाजार का चेहरा ही पूरी तरह बदल गया। महिलाओं से ज्यादा पुरुषों का इस बाजार पर कब्जा है। एकदम वहीं हालात मीडिया के है। जो समाज में बेहतरीन उदाहरण है वे खामोश होकर उन्हें पढ़ते हैं जो किसी स्तर के नहीं है। ना कोई समझना चाहता है ओर ना ही बदलना। सबकुछ बाजार के रास्ते से तय होता है। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहना, आमजन की आवाज बताना, निष्पक्ष रहना जैसी शब्दावली ब्यूटी पार्लर से निकलने वाली सुदंरता के क्रीम पाउडर की तरह है। कायदे से मीडिया सूचनाओं का व्यवसाय है। इसलिए स्कूल से लेकर विवि स्तर पर पत्रकारिता से जुड़े मास कम्युनिकेशन के अनेक पाठयक्रम शुरू किए जा चुके हैं जिसके आधार पर युवा मीडिया में अपना भविष्य निर्माण करते हैं। लोकल स्तर पर सूचनाओं की हालात यह है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक की दिनचर्या जबरदस्ती खबर की शक्ल में नजर आती है। मसलन जन्म होने पर कुआं पूजन, पौधारोपण, जरूरतमंदों को भोजन खिलाना, बड़ा होने पर बिना दहेज शादी, नौकरी लगने की खुशी, रिटायरमेंट आने पर विदाई समारोह और मृत्यु उपरांत नहीं रहे समाजसेवी. की कवरेज मीडिया के अलंकार बन चुके हैं। मीडिया की नब्ज समझ चुका एक ऐसा वर्ग भी खास पहचान बना चुका है जिसे छपास रोगी कहा जाता है। अगर दो तीन दिन के अंतराल में मीडिया में कवरेज नहीं मिले तो इनका शारीरिक ओर मानसिक संतुलन गड़बड़ाने लगता है। उससे बचने के लिए वे पत्रकारों से सुबह शाम संपर्क जरूर रखते हैं ताकि बीपी- शुगर सही रहे। धीरे धीरे यह संख्या बहुत तेजी से मीडिया कवरेज पर कब्जा करती जा रही है। कमाल की बात यह है कि समय समय पर जब मीडिया स्तर को लेकर संगोष्ठियां होती है यहीं छपास रोगी सबसे ज्यादा नसीहत देते नजर आते हैं। आमतौर पर तीन तरह खबरें प्रिंट मीडिया, यू टयूब चैनल, चैनल में नजर आती है। पहला दिन पर होने वाले महत्वपूर्ण घटनाक्रम जो मूल दायित्व व मीडिया की असल पहचान है। दूसरा रूटीन की खबरें जिसमें विज्ञापनदाता की उम्मीदें जुड़ी रहती है। तीसरे ऐसी खबरें जिसका ना तो विज्ञापन से लेना है और ना हीं किसी घटना के। यह व्यक्ति विशेष पर आधारित है जिसका मकसद किसी ना किसी बहाने अपनी मौजूदगी दिखाकर आमजन में अपना प्रभाव बनाए रखना होता है। इस तरह की खबरें पत्रकारों से वैध एवं अवैध संबंधों पर आधारित होती हैं जो अपने दिमाग से शब्दों की जादुगरी में चमत्कार को बलात्कार बताकर अपना खेल कर जाता है। इसलिए छोटी सी घटना में इस्तेमाल होने वाले भूंकप, तुफान, सुनामी, हाहाकार, तांडव, सनसनी, दहल उठी धरती, जैसे डराने वाले शब्द अब अपनी हैसियत खो चुके हैं। सूचनाओं की दुनिया में शब्दों का सरेआम हो रहा चीरहरण मीडिया का हर रोज नया चरित्र सामने ला रहा है। मीडिया का हश्र पूरी तरह मीना  बाजार की तरह ना हो जाए इसके लिए पत्रकार, समाचार देने व भेजने वालों को खुद के प्रति ईमानदार होगा। अकेले मीडिया को जिम्मेदार ठहराना ठीक उसी तरह है जिस तरह बड़ी होकर औलाद माता-पिता से सवाल करती है आपने मेरे लिए क्या किया।

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