डंके की चोट पर : किसान कर्जा लेकर विदेश नहीं भागता, संघर्ष करता हुए खुद को मार लेता है..

Danke Ki Chot Parरणघोष खास. प्रदीप नारायण


आज विपक्ष निष्प्राण पड़ा है और सत्ता पक्ष की सोच आखिरी सोच मानी जा रही है। इसलिए सड़क चिल्ला रही है संसद खामोश है। किसान- खेती से जुड़े केंद्र सरकार के तीन बिलों की असली हकीकत क्या है इसका सच आना अभी बाकी है। इतना जरूर है कि सरकार चाहे किसी की हो, उसकी जुबान पर किसान होते हैं लेकिन दिल में धन्नासेठ, और उन्हीं धन्नासेठों पर सरकारी पैसे सबसे ज्यादा उड़ाए जाते हैं?। सवाल सिर्फ विजय माल्या का नहीं है जिसने मनमोहन राज में सरकारी बैंकों से पैसा उड़ाया और मोदी राज में विदेश भाग गया। सवाल यह है कि किसानों की कर्जमाफी के वक्त अर्थव्यवस्था का अनुशासन बिगड़ने का हवाला देने वाले बैंक वाले कॉर्पोरेट कंपनियों की कर्जमाफी के वक्त चुप क्यों रह जाते हैं? वे चुप ही नहीं रहते बल्कि चुप रहकर पूरी मदद करते हैं।  दिल खोलकर बड़ी औद्योगिक कंपनियों को पैसा देते हैं। अगर सरकार की सोच को ही आखिरी सोच मान लें और यह सोच लें कि अर्थव्यवस्था में रफ्तार तो कॉर्पोरेट ही लाएगा, तो भी खेती-किसानी न्यूनतम ध्यानाकर्षण तो मांगती ही है। देश की जीडीपी में 14 फीसदी भागीदारी खेती की है जबकि 82 फीसदी आज छोटे और हाशिए पर खड़े किसानों की है। साथ ही 45 फीसदी लोगों के लिए रोजी भी खेती है और रोटी भी खेती. फिर इनके लिए कोई बेहतर कदम क्यों नहीं उठाया जाता? संसदीय लोक लेखा कमेटी के मुताबिक सरकार के डूबे हुए पैसे का 70 फीसदी हिस्सा बड़े बड़े औद्योगिक घरानों के पास है जबकि किसानों के पास यह रकम सिर्फ एक फीसदी आती है. फिर भी किसानों को चवन्नी का दान दिखता है, डॉलर में रूपये को ढालने वाले धन्नासेठों की चमक-दमक नहीं दिखती। यह जानकर आपको रोना आ जाएगा कि 1995 से अभी तक 30 से 40 किसान हर रोज खुदकुशी कर रहे हैं। इनमें से 70 फीसदी खुदकुशी के पीछे का कारण कर्ज है। पीएम नरेंद्र मोदी से उम्मीद इसलिए है क्योंकि उनके बचपन का संघर्ष किसी किसान की तरह ही रहा है। जहां जिंदगी हमेशा वक्त की ठोकरों पर उछाली जाती है। इसीलिए यह उम्मीद की जाती है कि वे किसानों के उस दर्द को अपने दिल में महसूस करेंगे। जिस पीड़ा को बचपन में कभी उन्होंने भी भोगा है। एक बार संसद की कैंटीन में खाना खाने के बाद प्रधानमंत्री ने लिखा- अन्नदाता सुखी भव। वह सुखी होगा, जब उसके अन्न का मोल उस तक पहुंचेगा। किसानों के खातों में आर्थिक मदद के नाम पर 6 हजार रुपए सालाना की राशि पहुंचाते हैं जो एक छोटा कदम है, क्योंकि ज्यादातर किसान सरकारी बैंकों से नहीं बल्कि स्थानीय साहुकारों से कर्ज लेते हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि बड़े बड़े साहुकार बड़ी पार्टियों से जुड़ जाते हैं, जिससे उनके शोषण को सत्ता का अघोषित संरक्षण मिल जाता है। सत्ता के ऐसे ही शोषण और संरक्षण के विरुद्ध 100 साल पहले एक दुबले पतले से अधेड़ नायक ने किसानों को जगाया था। आज उसी गांधी के देश के किसान शोषण से मुक्ति के लिए छटपटा रहे हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *