आम आदमी के सपनों का टूट जाना तो आम बात है लेकिन आम आदमी को सपनों के टूटने की आदत पड़ गयी हो ऐसा भी नहीं है। काल से होड़ लेते हुए मनुष्य के भीतर जब तक जिजीविषा जीवित रहती है तब तक वह सपने देखता रहता है। आज कोरोना और लॉक डाउन से पीड़ित भारत में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिनकी जिजीविषा दम तोड़ती नज़र आने लगी है। भारत जैसे देश में जहां लगभग आधी आबादी पहले से ही दुनिया में सबसे ज्यादा कुपोषण का शिकार है। तमाम प्रयासों के बावजूद काबू में नहीं आ रहे हालातों को दिवालियापन का सबसे सटीक उदाहरण कहा जा सकता है।
स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में हम यूनिसेफ की रिपोर्ट पर ही नज़र डालें तो भारत की स्थिति उप–सहारा अफ्रीका और नेपाल और अफगानिस्तान जैसे ‘सबसे कम विकसित देशों’ से भी नीचे है। उस पाकिस्तान से भी नीचे जिसे 24 घंटे हमारा मीडिया कोसता रहता है। दक्षिण एशिया (केवल भारत नहीं) में बाल कुपोषण के ऊँचे स्तर की प्रवृत्ति को, जिसकी बराबरी उप–सहारा अफ्रीका के उन देशों से की जा सकती है जिनके आय या स्वास्थ्य संबंधी संकेतक कमजोर हैं, ‘दक्षिण एशियाई पहेली’ क्यों कहा जाता है यह बात अमर्त्य सेन बेहतर ढंग से ‘दीया जलाओ’ या ‘थाली बजाओ’ की अपील करने वाले प्रधानमंत्री मोदी को समझा सकते थे, अगर वे भी यहां टिकने की स्थिति में नहीं थे। कुल मिलाकर इस बार की दीवाली कोरोना के लिए है या हमारे लिए। यह सबसे बड़ा सवाल हमसे ईमानदारी से जवाब चाहता है। किसी के पास है तो वह जरूर बताए जिम्मेदारी के साथ।