कोराना से पूरी दुनिया तबाह रही। अछूता कोई नहीं। अब वैक्सीन ने लोगों में उम्मीद जगाई है। लेकिन कोरोना से एहतियात ने लोगों के जीवन शैली में बदलाव ला दिया है। खान-पान से लेकर शारीरिक श्रम तक। शायद यही कारण रहा हो कि प्रकृति के करीब रहने वाले शारीरिक श्रम करने और मोटा अनाज, कंद-मूल और साग पर ज्यादातर निर्भर रहने वाले आदिवासी समाज को यह ज्यादा परेशान नहीं कर सका। झारखंड में कोरोना का प्रकोप विकसित प्रदेशों की तुलना में कम रहा। गुरुवार तक की रिपोर्ट ही देखें तो सिर्फ चार जिलों में दस से अधिक कोरोना के नये मरीज मिले। सर्वाधिक रांची के साथ जमशेदपुर, धनबाद और बोकारो जो झारखंड के विकसित शहर हैं, ज्यादा शहरी आबादी वाले। टीआरआइ ( जनजातीय शोध संस्थान), झारखंड के निदेशक रणेंद्र कुमार का भी मानना है कि आदिवासियों के जीवन शैली के कारण ही कोरोना का इन पर कम प्रभाव पड़ा। हाईजीनिक और अन हाईजीनिक शब्द कोरोना काल में महाशक्तियों का मायाजाल है। जो जितना सुविधा भोगी हैं उनमें रोग निरोधक क्षमता उतनी कम होती है। झारखंड के ग्रामीण इलाकों में आदिवासियों की बड़ी आबादी है। धूप, बारिश, हवा और ठंड के बीच खेत, खलिहानों में काम करना, कम सुविधाओं वाले मकान में रहना इनकी आदत सी होती है। भांति-भांति के साग, कंद मूल खाना इनकी दिनचर्या में है। जो प्रोटीन युक्त है। ताजा बनाना और खाना इनकी आदत। पिज्जा, वर्गर, मैगी, पास्ता जैसे फास्ट फूड-जंक फूड और फ्रिज में रखे बासी खाद्य पदार्थ से इनका वास्ता नहीं रहता। कोरोना काल में विशेषज्ञ इससे परहेज की सलाह दे रहे हैं। आदिवासी समाज से आने वाले सांसद हो विधायक हों या दूसरे लोग अपनी मिट्टी से नहीं कटते। लोकसभा उपाध्यक्ष रहे कड़ियां मुंडा को उन्होंन करीब से देखा है। उस दौर में भी वे गांव आते तो पत्नी के साथ खेत खलिहान में खुरपी, कुदाल लेकर लग जाते, बिना कोई संकोच। उनकी शिक्षक बेटी आम बेच रही थी तो तस्वीर वायरल हो गई थी। मगर सहज स्वभाव वाला आदिवासियों का अपना अंदाज है। शारीरिक मेहनत तो हो ही जाती है। अब जिम में भी लोग शारीरिक मेहनत करने जाते हैं मगर जिम भी एसी है। यही सब कारण रहा कि आदिवासियों को कोरोना दूसरे लोगों की तरह परेशान नहीं कर सका। शारीरिक मेहनत के आदिवासियों का खान-पान का अपना अंदाज है उनके अनेक खान-पान के बारे में बाहरी दुनिया के लोग जानते भी नहीं। रुगड़ा जिसकी खेती नहीं होती, बारिश के मौसम में जमीन से निकलता है, लो कोलस्ट्रॉल और हाई प्रोटीन से भरपूर, खुखड़ी, महुआ, मडुआ और पचासों तरह के साग। साग की ऐसी-ऐसी किस्में और अलग-अलग गुण जिनके बारे में झारखंड के भी गैर आदिवासी नहीं जानते, आदिवासियों के भोजन में शामिल है। एक साग ऐसा भी जो पेट में जाने वाले बाल को गला देता है। सीजन में एक-दो बार खाना आदिवासियों के लिए परंपरा की तरह है। ऐसा साग भी जिसे खाने से नींद आती है। अनेक साग ऐसे जो पेट की बीमारियों में पीलिया आदि में मुफीद। शरीर में दर्द, पानी की अधिकता होने पर भी साग कारगर। खूंटी कॉलेज में पढ़ाने वाली अंजू लता ने 52 तरह के सागों और उनके औषधीय गुण के बारे में ब्योरा जुटाया है। वहीं पत्रकार रहीं सोशल एक्टिविस्ट वासवी किड़ो महुआ का लड्डू बनवा रही हैं। जो जबम ऐंबा नाम से ट्राइवल फूट पर आधारित रेस्तरा भी रांची में चल रहा है। ऐसे में इनके खाद्य पदार्थों के बारे में पहचान और शोध की जरूरत है। नहीं तो आने वाले दिनों शहरीकरण के प्रभाव में उसे कोई पहचानने वाला भी नहीं रहेगा।