रणघोष खास. सुभाष चौधरी
हम भारतीय आखिर किस मिट्टी के बने हैं। सुबह क्या सोचकर उठते हैं। क्या सोचकर ऊपरवाले को याद करते हें। क्या सोचकर दिनभर एक दूसरे की बुराई, बड़ी बड़ी बाते करते हैं। समझदार हो रहे बच्चे से लेकर उम्र दराज बुजुर्ग को भी पता है कि कोरोना किस बला का नाम है। वह ना भाईचारा देखता है और ना जात-पात। वह ईमानदारी से अमल में लाए जाने वाली सोशल डिस्टेंस से जरूर दूरी बनाकर रखता है। इन दिनों शादियों का सीजन चरम पर है। दिखाने के नाम पर प्रशासन से 100 मेहमानों की अनुमति ली जाती है पहुंच रहे हैं बेहिसाब। इसी तरह शोक सभाओं में पहुंचना इसलिए अनिवार्य मान लिया गया नहीं तो संबंध खराब हो जाएंगे। नेताओं की बात ही निराली है। उनके तौर तरीकों एवं अंदाज से ऐसा लग रहा है मानो उनकी कोरोना से डील हो चुकी हो। यह वो वर्ग है जो खुद को समाज में बेहद जिम्मेदार और समझदार मानता है। सुधरना होता या सबक लेते तो कभी का यह वायरस वापस वहीं लौट जाता जहां से आया था लेकिन मजाल छोटी- छोटी बातों में दूसरों की आलोचना एवं खामियां निकालने में महारत हासिल कर चुके हम भारतीयों पर जूं तक रेंगी हो। मौजूदा कोरोना काल में शादी समारोह में सैकड़ों लोगों को पहुंचाने वाले आयोजकों एवं पहुंचने वाले दोनों को कायदे से कोरोना योद्धा से सम्मानित करना चाहिए। आखिर ऐसा करके हम क्या साबित करना चाहते हैं। नहीं बुलाया या नहीं पहुंचने की वजह से क्या इज्जत चली जाएगी। एक दूसरे का सम्मान करने के अनेक अवसर है। बेहतर होता जिस खाने की एक प्लेट पर एक हजार से 2000 रुपए खर्च किए। उस राशि से मिलने वालों का कोरोना टेस्ट करा देते तो लगता देश बदल रहा है। सादगी से शादी करने से अगर किसी का रोजगार या व्यवसाय खतरे में पड़ जाता है तो फिर जान है तो जहान है की मानसिकता को खत्म करिए। कोरोना को बेवजह का ड्रामा घोषित कर दीजिए। फिर क्यों चेहरे पर मास्क लगाकर खुद को सेनेटाइज कर रहे हैं। यह वायरस आपसी रिश्तेदारी या लिहाज शर्म देखकर नहीं फैल रहा है हमारी इसी तरह की हरकतों एवं नाकामियों की वजह से किसी ना किसी की जिंदगी छिन रहा है। उसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराएंगे। क्या सोचकर हम धर्म-कर्म की बात करते हैं। अपने ईष्ट देवता के सामने कुछ देर बैठकर अपनी सारी गलतियों को माफ करवा लेंगे। इस शार्ट कट फार्मूले से बाहर निकलिए। सोचिए जब कोरोना राजाओ जैसी शान शौकत की हैसियत रखने वाले लोगों को नहीं छोड़ रहा। आप और हम क्या सोचकर इतरा रहे हैं। क्या कोरोना बताकर आएगा कि इस बार आपका नंबर है। तैयार रहिए। कुछ तो बताइए जिस पर हम कह सके कि हम जिम्मेदार- समझदार समाज के लोग है। कम से कम शुभ या दु:खद धड़ी में कोरोना के नाम पर झूठ का सहारा लेकर भीड़ जुटाने की गलती करना बंद कर दीजिए। अपने परिवार के लिए जहां छोटे- छोटे बच्चों एवं बुजुर्गों पर तरस खाइए। वे इसलिए आज भी घरों में कैद है ताकि कोरोना का आक्रमण उन्हें जल्दी चपेट में ना ले। बाजार में नजर आने वाली भीड़ यह बताने के लिए काफी है कि वह अपनी मौत को बहुत सस्ते में बेचने के लिए तैयार है। हम यह क्यों भूल रहे हैं कि सर्दी शुरू होते ही कोरोना की चपेट में आने पर मृत्यु दर में तेजी से इजाफा हो रहा है। कुल मिलाकर यही रैवया रहा तो किसी को अधिकार नहीं वह कोरोनो के नाम पर एक दूसरे को जिम्मदेार ठहराए। सही मायनो में ऐसी लापरवाही करने वाले समाज के सबसे बड़ी अपराधी और इंसान के नाम पर कलंक है। इन कठोर शब्दों का इस्तेमाल इसलिए जरूरी है। यह कोताही किसी की जिदंगी छीनने की हद पार है जिसे वहीं रोकना जरूरी है।