परिवार-समाज को बचाना है तो एक बार असम जरूर आए जिंदगी संवर जाएगी
हम आमतौर पर असम को कितना जानते हैं। नक्शे पर देखा, किताबों में पढ़ा। उग्रवाद, बाढ़- भूकंप की आपदा से लड़ते हुए मीडिया में देख लिया। प्रकृति की बात चली तो थोड़ा बहुत याद कर लिया। चाय की चुस्किया लेते समय कभी कभार मोबाइल स्क्रीन पर असम के खेत- खलिहान नजर आ गए तो चर्चा कर ली। इससे ज्यादा शायद नहीं..। सदियों से हमें असम को इसी चेहरे दिखाया जाता रहा है। असल में असम की जीवन शैली में बसी सुदंरता को किसी ने दिखाया ही नहीं। अगर दिखाया तो उसकी चर्चा देश के घर घर में क्यों नहीं है। हिंदी प्रदेशों में जब दहेज नहीं मिलने पर बेटियों को जिंदा जला दिया जाता है तो असम के घरों में बेटियां पूछती है यह दहेज क्या होता है। हमारे यहां हर घंटे दहेज से प्रताड़ित मामले पुलिस थानों में दर्ज होते हैं असम पुलिस इसकी शिकायत आते ही हैरान हो जाती है। वह यह पता करने में जुट जाती है कि शिकायतकर्ता असम का मूल निवासी है या नहीं। हमारे यहां शादियों में शक्ति प्रदर्शन के नाम पर मेहनमान नवाजी के लिए तरह- तरह के व्यंजनों की बेहिसाब स्टालें लगाई जाती है ताकि वर- वधु पक्षों को तारीफें मिले। प्लेट में बचे भोजन को झूठन नाम देकर फैंक दिया जाता है। असम के मध्यमवर्गीय खासतौर से ग्रामीण अंचलों में होने वाली शादियों में पांच से ज्यादा व्यंजन नहीं होते। थाली में बचा भोजन कभी झूठा होता है यह उन्हें नहीं पता। हिंदी राज्यों के घरों में बेटा होने की खुशी में मिठाईयां बांटी जाती है। कुआं पूजन जैसी रस्मों को निभाया जाता है। महाभोज होता है। हर साल जन्मदिन पर छोटी- बड़ी पार्टियां चलती है। असम में बेटा हो या बेटी। घर की खुशियां कभी भेद नहीं करती। इसलिए यहां पुरुष प्रधान समाज जैसी मानसिकता आज तक पनप नहीं पाई है। विकास में खुद को सबसे ऊंचे पायदान पर पहुंचकर इतराने वाले हिंदी राज्यों में महिला उत्पीड़न के सबसे ज्यादा मामले दर्ज होते हैं। असम में महिलाए घर से लेकर सामाजिक- राजनीतिक कार्यक्रमों में सबसे आगे नेतृत्व करती नजर आती है। हरियाणा- दिल्ली- पंजाब-राजस्थान- उत्तर प्रदेश- मध्यप्रदेश जैसे राज्यों के शहरों में बने आलीशन घर, भागती- दौड़ती चौड़ी सड़कों एवं आसमान को छूती इमारतों के बीच महिलाएं दिन हो या रात सहमी हुई दिखती है। असम में महिलाएं बेफ्रिक होकर अपनी जिम्मेदारियों को निभाती नजर आती है। यहां परिवार की आर्थिक चुनौतियों से लड़ते हुए महिलाएं चाय के बागानों में 8 घंटे काम करती है। बदले में उन्हें 167 रुपए मजदूरी मिलती है। फिर भी हंसते- मुस्कराते हुए जीवन के हर पल को जीती है।
साइकिल से घरों से लौटती इन महिलाओं के चेहरों को पढ़िए। एक झटके में समझ जाएंगे सुख सुविधाएं अर्जित करना जिंदगी जीने के तोर तरीके नहीं है। कम से कम सुविधाओं में भी जीवन कैसे जीया जाता है यह सीख लिजिए। हिंदी राज्यों में खासतौर से छोटी- छोटी बातों पर तलाक होना रूटीन हो गया है। असम की अदालतों में जाइए। वकील तलाक की बात करने वालों को एक बार ऊपर से नीचे तक ध्यान से देखते हैं और केस से ज्यादा तलाक लेने वाले की जन्मकुंडली खंगालने में लग जाते हैं। हमारे यहां सफर करते समय किसी का पैर या हाथ लग जाए तो मारपीट तक की नौबत आ जाती है। असम में अगर गलती से पैर लग जाए तो तुरंत पैरो के हाथ लगाकर माफी मांगते हैं। चार दिन असम में रहकर जब हम वापस अपने घरों को लौटे तो इन सवालों ने हमें सोने नहीं दिया। असम विधानसभा चुनाव की वजह से इन दिनों सुर्खियों में हैं। अफसोस किसी राजनीतिक दल ने अपने घोषणा पत्र में या छोटे- बड़े नेता नेता ने असम की इस असल खुबसूरती को दिखाने का प्रयास नहीं किया। हम असम ही पहचान को चाय की चुस्कियो तक नहीं रखे। अगर सच में हम अपने परिवार- समाज को स्वस्थ्य- खुबसूरत देखना चाहते हैं तो एक बार असम की माटी को जरूर छू ले। दिलो दिमाग में जमी मिलावट काफी हद तक हटना शुरू हो जाएगी। असम तमाम चुनौतियों के बावजूद आज भी नेचुरल है। यहां हवाएं चीखकर नहीं चहकते हुए आपको अपना बना लेती है। इसलिए असम को दूरियाें से नहीं दिल से देखिए