चंदा इज every. Where मूवी एक मां की संपूर्ण अनुभूति है जरूर देखे खुद के लिए

जिसे हम कूड़ेवाली कहते रहे, करीब से देखा तो वह मां थी


रणघोष खास.  प्रदीप नारायण

पत्रकार के तौर पर लिखी बेहिसाब खबरें, अनगिनत कहानियां अखबारों के पन्नों पर अपनी बात कहकर कब उम्रदराज होकर बिना शोर मचाए हमसे जुदा हो जाती है पता नहीं चलता। सही मायनों में एक पत्रकार व उसकी पत्रकारिता की  नियति भी यही है। जिसमें उसका वजूद जिंदा रहता है। ऐसी ही एक लिखी कहानी भी अखबारों के रंगीन पन्नों की दुनिया में भटकर खत्म हो जाती अगर चंदा प्लास्टिक मिलने की उम्मीद में रोज हमारे पास से होकर नहीं गुजरती। इस  कहानी पर बनी  चंदा इज every. Where शार्ट मूवी ने 10 मिनट में अपनी बात कह दी। इसे देखकर समझना ओर कितना समझना ओर समझकर इसे अनदेखा कर देना इससे चंदा की जिंदगी पर कोई असर नहीं पड़ेगा। हमने कूड़े वाली की पहचान देकर पहले ही एक दूसरे से दायरा बना लिया था।   जिस कचरों के ढेर के पास से गुजरते समय हमारा दिमाग खराब हो जाता है। उसकी दुर्गंध हमारा मिजाज- हाजमा बिगाड़ देती है। चंदा की आधी से ज्यादा जिंदगी इसी कूड़ाघर की गंध में संवरती रही है। कुत्ते गाय- चंदा सब मिलकर इस घर में अपनी रोटी तलाशते हैं। यह फिल्म चंदा की जिंदगी का सारांश है। वह घर में पत्नी, मां ओर दादी के रिश्तों में खुद को तलाशती है। खाली बोरी लेकर जैसे ही घर से बाहर निकलती है समाज के लिए वह कूड़ेवाली बन जाती है। चंदा 24 घंटे के अंतराल में ना जाने कितने चरित्रों में जीती है। वह जीवन में मुश्किलों में घिरते हुए बिखरते हुए देखती है। वह हर समय टूटती बिखरती वह खुद को समेट लेती है। वह इसे नियति मान आंसू पूछ लेती है। कमजोर नहीं है मां है  वह…. नवरात्रा पर रिलीज होने वाली इस मूवी को समय मिलते ही जरूर देखिए खुद के लिए।

 

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