डंके की चोट पर : -इस लेख को पढ़ लिजिए सबकुछ समझ में आ जाएगा

देश में मीडिया को लेकर सबसे बड़ा झूठ वह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है


– हैरान की बात यह है कि मीडिया पर तमाम तरह के हमला करने वाले, नैतिकता, कर्तव्य का पाठ पढ़ाने वालों में अधिकांश वो हैं जो अखबार खरीदते व पढ़ते समय 5 रुपए खर्च करने में 100 बार सोचते हैं। ऐसे लोगों को सार्वजनिक मंचों पर समाजसेवी, शिक्षाविद, मुख्य वक्ता, नेता, बुद्धजीवी तरह तरह के अतिथि की शक्ल में देखा जा सकता है।


 रणघोष खास. प्रदीप नारायण


जब से हमारा देश आजाद हुआ है मीडिया को लेकर एक जबरदस्त झूठ सच की शक्ल में तब्दील कर दिया गया है जिस पर कोई भी एरा- गैरा नत्थू गैरा आकर शब्दों की चासनी में उसे जलेबी की तरह डूबोकर चला जाता है। पहला झूठ मीडिया भारतीय लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। ऐसा संविधान में कहां लिखा है और किस अधिकार के तहत यह दावा किया गया है। मीडिया में काम करने वालों को वहीं अधिकार मिला है जो एक आम भारतीय के पास है। हकीकत यह है कि गुलाम भारत में  मीडिया मिशन था। आजादी के बाद मीडिया उद्योग बन गया। सोचिए विचारिए और ईमानदारी से मंथन करिए। 15 से 20 रुपए की लागत वाला अखबार पाठकों के घरों में 5 रुपए की कीमत से भी कम कीमत में  कैसे घर पहुंच रहा है। इस 5 पांच रुपए में अखबार के एजेंट व हॉकर का 30 से 40 प्रतिशत कमीशन अलग है। यानि अखबार मालिक 12 से 14 पेज के अखबार पर कम से कम 15 रुपए खर्च कर उसके बदले महज साढ़े 3 रुपए वसूल कर पा रहा है फिर भी वे जिंदा रहते हैं हालांकि 90 प्रतिशत अपने जन्म से  एक-दो साल बाद दम तोड़ जाते हैं। जीवित वही रहते हैं जो आमजन व हक की आवाज को रसूकदार व बाजार के बाजीगरों के हाथों बोली लगाकर बेचते हैं। इसमें बुरा ओर गलत क्या है। क्या अखबार बर्बाद होने के लिए निकाला जाता है। 15 रुपए का अखबार 5 रुपए में जनता पाठक के तौर पर ले रहे है। इतना ही नहीं वह आपसी प्रतिस्पर्धा में अखबारवालों की नई नई स्कीमों में झट अखबार बदल देते हैं तो पाठक ईमानदार कैसे हो गया। जब पाठक उपभोक्ता बनकर अपना फायदा देखता है तो अखबार के मालिक को यह अधिकार क्यों नहीं है। प्रत्येक अखबार में 10 रुपए के घाटे को पूरा करने के लिए अखबार मालिक  विज्ञापन के लिए दिन रात संघर्ष करते है। उन्हें ऐसे लोगों के आगे गिड़गिड़ाता पड़ता है जिसकी कोई सामाजिक हैसियत नहीं है। हैरान की बात यह है कि मीडिया पर तमाम तरह के हमला करने वाले, नैतिकता, कर्तव्य का पाठ पढ़ाने वालों में अधिकांश वो हैं अखबार खरीदते व पढ़ते समय 5 रुपए खर्च करने में 100 बार सोचते हैं। ऐसे लोगों को सार्वजनिक मंचों पर समाजसेवी, शिक्षाविद, मुख्य वक्ता या तरह तरह के अतिथि की शक्ल में देखा जा सकता है। मीडिया पर बिकाऊ होने का आरोप सबसे ज्यादा लगता है। ऐसा बोलने वालों को अपने गिरेबां में झांकना चाहिए कि मीडिया व्यवसाय है। आरोप वहीं लगाए जो 15 रुपए की लागत वाले अखबार को  16 से 17 रुपए में खरीदने की हैसियत रखते हो। उन्हें कम से कम पाकिस्तान की जनता से ही सीख लेना चाहिए जहां अखबार की कीमत 25 रुपए है यानि हमसे 5 गुणा ज्यादा। अगर भारत में भी एक अखबार की कीमत अगर 25 रुपये तक हो जाये, तो क्या मीडिया को नसीहत का पाठ पढ़ाने वाले  अखबार इसी प्रकार खरीद पायेंगे, जैसा कि आजकल खरीद रहे हैं। जाहिर है अखबार से तौबा ही कर लेंगे और ले-देकर  फ्री के लालच में स्मार्टफोन से ही काम चला लेंगे। सच्चाई यह है कि अखबार छापना और उसे बेचना दोनों आत्मघाती व्यवसाय है। पाठक सही कीमत देकर पढ़ना नहीं चाहता, उसे तो पांच रुपये की अखबार में भी मुफ्त के बहुत कुछ चाहिए, और अगर अखबार मुफ्त में मिल जाये तो आनन्द ही आनन्द है। इस सच को स्वीकार करना होगा जिस देश में पाठकों को मुफ्त अखबार पढ़ने की आदत लग जाती है, उन्हें सही समाचार कभी प्राप्त ही नहीं होता, बल्कि उनके पास वहीं समाचार पहुंचता हैं, जो मुफ्तखोरी से प्राप्त हो रही होती है, जिसमें विज्ञापन का स्वाद चिपका होता है। यह समझना होगा अखबार को पाठकों तक आने के लिए कागज, मशीन, मजदूर, रिपोर्टरों, संपादकों की आवश्यकता होती हैं और ये सारी चीजें बिना पैसे के तो संभव नहीं। ऐसे में अखबार मालिक/संपादक क्या करें? उनके पास कोई विकल्प नहीं होता और एक मात्र सहारा विज्ञापन ही होता है, जिस पर वे आश्रित होते हैं।विज्ञापन अगर सरकारी हो, तो अखबार पर सरकार और उनके लोगों का सीधा हस्तक्षेप होता हैं, यानी जरा सी सरकार को आंख दिखाई, विज्ञापन बंद। ज्यादातर अखबारों के विज्ञापन का मूल स्रोत सरकारी विज्ञापन ही है, जो प्रमुख अखबार हैं, उन्हें तो कुछ निजी कंपनियों/प्रतिष्ठानों के विज्ञापन मिल जाते हैं, पर सब के लिए ऐसा संभव नहीं, ऐसे में अखबारों की जो भारत में स्थिति हैं, वो तो होनी ही हैं। ऐसे में किसी पत्रकार/संस्थान से ईमानदारी की बात सोचना भी बेमानी है, क्योंकि उनके पास भी परिवार है, पेट है, कैसे चलेगा? आखिर इसके लिए दोषी कौन है, अखबार मालिक, संपादक, पत्रकारों के क्रियाकलाप या पाठकों की मानसिकता जो अधिक दाम होने पर वे अखबारों से मुंह मोड़ लेने की भी सोच रखा करते हैं। एक पत्रकार मित्र ने कभी  कहा था कि जिस देश में कार से उतरकर लोग अखबार के पन्नों पर कूपन काटकर लाइन में लग कर एक प्लास्टिक का मग लेने के लिए काउंटर तक पहुंच जाते हैं, वहां अखबार की कीमत 25 रुपये तो दूर अगर गलती से दस रुपये हो जायेगा तो कई अखबारों के ऑफिस में ताले झूलते नजर आयेंगे, इसलिए जैसा चल रहा हैं, वैसा चलने दीजिये। बस इतनी गुजारिश है कि प्रवचन देने से पहले खुद के प्रति ईमानदार बन जाइए। सबकुछ बेहतर हो जाएगा।

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