डंके की चोट पर : किसकी माने बापू की, मोदी की, घर के बड़े बुजुर्गों की या अपने आप की..

-जिनके छूने से दुबारा नाहते हैं, जिन्हें देखने से दिन अशुभ हो जाता है। जिन्हें पानी या चाय पिलाना तो दूर प्यार से दो शब्द बोलने में अपनी तौहीन समझते हैं। इसी मानसिकता वाले बापू, मोदी के जन्मदिन पर इन्हीं कर्मचारियों को सम्मानित ओर गले लगाते नजर आते हैं।


रणघोष खास. प्रदीप नारायण

इन दिनों बड़ी उलझन में हैं। पीएम नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पखवाड़े  पर 17 जनवरी से सफाई करते करते 2 अक्टूबर आई तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी अपनी जयंती पर झाड़ू थमा दी। अब कुछ दिन बाद दीवाली आने वाली है। घर में साफ सफाई के नाम पर  बड़े बुजुर्ग झाड़ू लेकर खड़े हैं। आखिर कितनी गंदगी हमारी जिंदगी में आ चुकी है जिसे साफ करने के लिए राष्ट्रपिता से लेकर पीएम व घर के मुखियाओं को आगे आना पड़ता है। क्या सच में हर साल किसी विशेष दिनों के बहाने ही अपने  घरों, गली मोहल्लो, सार्वजनिक स्थानों को साफ कर एक बेहतर इंसान होने का प्रमाण पत्र मिल जाता है। लोकल समाचार पत्रों में सफाई अभियान के नाम पर इतनी बेशुमार खबरें छपती है मानो गंदगी का नामों निशान खत्म हो गया हो। कमाल देखिए इन्हीं समाचार पत्रों में कुछ दिनों बाद गंदगी के ढेरो की बेहिसाब कवरेज हमारे सफाई अभियान की असल मानसिक गंदगी को उजागर करती नजर आती है। सीवरेज के मैनहॉल में जाकर हमारी गंदगी को अपने शरीर में समा लेने वाले जिन सफाई कर्मचारियों के छूने से दुबारा नाहते हैं, जिन्हें देखने से दिन अशुभ हो जाता है। जिन्हें पानी या चाय पिलाना तो दूर प्यार से दो शब्द बोलने में अपनी तौहीन समझते हैं। इसी मानसिकता वाले बापू, मोदी के जन्मदिन पर इन्हीं कर्मचारियों को सम्मानित ओर गले लगाते नजर आते हैं। समझ में नहीं आ रहा कि किसकी माने बापू की, मोदी की या घर के बड़े बुजुर्गों की। या फिर अपने आप की जहां से बार बार आवाज झकझोर कर चली जाती है कि ऐसा कब तक सफाई के नाम पर दिखावे का यह पांखड चलेगा। गंदगी असल में कूड़ाघर में है या हमारी मानसिकता में जो धर्म-जाति- छुआछूत- छोटा- बड़ा, भ्रष्टाचार जैसे ना जाने कितनी संडाधों से हमें सड़ाता जा रहा है। क्या वह दिन आएगा जब हम खुद के प्रति ईमानदार- जवाबदेह बनाने का संकल्प लेकर अभियान चलाते नजर आएंगे।

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