देश के अर्थशास्त्र को समझिए

सरकार से क्यों परेशान हैं एमेज़ॉन और फ़्लिपकार्ट? 


देश में ऑनलाइन खरीदारी का कारोबार हर साल 25 प्रतिशत या ज़्यादा रफ़्तार से बढ़ रहा है। एक अनुमान है कि 2026 तक यह बाज़ार करीब 20 हज़ार करोड़ डॉलर या करीब 15 लाख करोड़ रुपये का हो चुका होगा।


रणघोष  खास. आलोक जोशी 

ऑनलाइन रिटेल या ई कॉमर्स कारोबार में हंगामा मचा हुआ है। एमेजॉन और फ्लिपकार्ट से लेकर रिलायंस के जियो मार्ट और टाटा के बिग बास्केट तक परेशान हैं। यह लिस्ट और लंबी है।इन सबके बीच खलबली की वजह है उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय की तरफ से जारी ई कॉमर्स गाइडलाइन्स का नया ड्राफ्ट। पिछले साल ही उपभोक्ता संरक्षण नियमावली आई थी और एक साल के भीतर ही सरकार ने उसमे भारी फेरबदल के साथ नए नियमों का खाका सामने रख दिया है।इसमें इन कंपनियों पर कई तरह की पाबंदियाँ साफ दिख रही हैं। सरकार की नज़र से देखें तो यह उपभोक्ता के अधिकारों को बढ़ानेवाले नियम हैं। कंपनियों की नज़र से यह नई नियमावली उनके लिए काम करना ही मुश्किल कर देगी।

विरोध

हालांकि कंपनियाँ इस मामले पर खुलकर कोई बयान देने से कतरा रही हैं,  लेकिन वे सरकार के साथ बातचीत में भी लगातार दबाव बना रही हैं कि इन नए नियमों पर फिर विचार किया जाए और उनकी तरफ से लॉबीइंग करनेवाली तमाम ताक़तें भी सक्रिय हैं।सरकार ने सभी पक्षों को इस ड्राफ्ट पर अपने विचार और सुझाव देने के लिए 6 जुलाई तक का समय दिया था। लेकिन अब इसे दो हफ्ते बढ़ाकर 21 जुलाई तक कर दिया गया है।एमेजॉन, फ्लिपकार्ट, टाटासमूह, पेटीएम और स्नैपडील जैसी अनेक बड़ी कंपनियों ने माँग की थी कि सुझाव देने के लिए उन्हें एक महीने का या कम से कम बीस दिन का समय और दिया जाए। ऐसी ही माँग अनेक उद्योग संगठनों की तरफ से भी आई थी।

जाँच

एमेजॉन और फ्लिकार्ट के सामने एक दूसरा मोर्चा भी खुला हुआ है। कंपीटिशन कमीशन ऑफ इंडिया ने पिछले साल इन दोनों कंपनियों के ख़िलाफ़ जाँच शुरू की थी।जाँच इस बात की होनी है कि क्या ये कंपनियाँ अपने प्लेटफॉर्म पर गिने चुने व्यापारियों को तरजीह देती हैं, उनके साथ मिलकर गलाकाट दामों की होड़ को बढ़ावा देती हैं और क्या ये फोन कंपनियों के साथ मिलीभगत कर भारी डिस्काउंट वाली सेल लगाती हैं?दोनों कंपनियों ने इस जाँच को अदालत में चुनौती दी है। हालांकि कर्नाटक हाईकोर्ट ने उनकी अर्जी नामंज़ूर कर दी, लेकिन उन्होंने इस आदेश के ख़िलाफ़ भी अपील की है। दूसरी तरफ देश भर के लगभग सात करोड़ छोटे व्यापरियों के लगभग 40 हज़ार संगठनों का महासंघ सीएआईटी इस मामले में जाँच के पक्ष में दबाव बनाने में जुटा है।उनका कहना है कि दोनों कंपनियाँ जिस तेज़ी से जाँच से बचने के लिए अदालत में गईं उससे ही दिखता है कि वो छोटे व्यापारियों के ख़िलाफ़ कुछ न कुछ ग़लत काम कर रही हैं।

छोटे व्यापारियों की शिकायत

सीसीआई की यह जाँच दिल्ली व्यापार महासंघ की शिकायत पर शुरू हुई थी। इस संगठन में दिल्ली के हज़ारों छोटे और मझोले कारोबारी शामिल हैं। इनकी शिकायत थी कि इन कंपनियों के मनमाने तरीकों से छोटे व्यापारियों को भारी नुक़सान हो रहा है। हालांकि जाँच काफी समय तक अटकी रही क्योंकि उसपर अदालत ने स्टे दे रखा था। अब जबकि उपभोक्ता कानून में बदलाव पर बहस गर्म है तो यह मामला भी साथ साथ चर्चा में है। क़ानून में जो बदलाव होने हैं उन पर भी विद्वानों में काफी मतभेद हैं।एक तरफ ऐसे लोग हैं जो नई गाइडलाइन्स में छेद ढूंढ ढूंढकर सामने ला रहे हैं कि कैसे यह गाइडलाइन्स बड़ी कंपनियों के लिए कारोबार मुश्किल कर देंगी और आखिरकार इसका खामियाजा खरीदार को भुगतना पड़ेगा।

लॉकडाउन में क्या हुआ?

लॉकडाउन के दौर में ऑनलाइन रिटेलर्स और फूड डिलिवरी कंपनियों ने जो काम किया उसे देखकर यह तर्क काफी दमदार भी लगता है। अलग अलग ऑनलाइन कंपनियों के बीच हुए सर्वे से पता चलता है कि इस दौर में उनके पास 50 से 65 प्रतिशत तक ऐसे नए ग्राहक आये, जिन्होंने पहली बार कोई ऑनलाइन खरीदारी की।ऐसे माहौल में बड़ी कंपनियों की शिकायत है कि सरकार उनके कामकाज में बड़ी दखलंदाजी की तैयारी कर रही है। भले ही छोटे व्यापारियों के हित के नाम पर हो या घरेलू उत्पादकों को बढ़ावा देने के लिए, लेकिन जिस तरह के नियम इन गाइडलाइन्स में दिख रहे हैं वो बहुत मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं।

सरकार का हस्तक्षेप

इसका उदाहरण यह है कि सरकार ने इन पोर्टल्स पर फ्लैश सेल पर लगाम कसने की बात कही है। प्लेटफॉर्म चलानेवाली कंपनियाँ खुद सामान न बेचें और दूसरे व्यापारियों से भेदभाव न करें, यह पक्का करने को कहा है।यहाँ तक कि उनके डिलिवरी पार्टनर भी बेचनेवालों के बीच में भेदभाव न करें, यह कहा गया है।लेकिन इसके साथ जो और बड़ा पेच है वह यह कि उपभोक्ता और विक्रेता की शिकायतों के निपटारे का इंतजाम मजबूत करने का निर्देश भी इन नियमों में शामिल है।इसके लिए उन्हें अपने कंप्लाएंस ऑफ़िसर या ग्रीवांस ऑफ़िसर नियुक्त करने होंगे और साथ ही अगर सामान बेचनेवाला लापरवाही करता है तो उसकी ग़लती का ख़ामियाज़ा भी भुगतना पड़ सकता है। देश में ऑनलाइन खरीदारी का कारोबार हर साल 25 प्रतिशत या ज़्यादा रफ़्तार से बढ़ रहा है। एक अनुमान है कि 2026 तक यह बाज़ार करीब 20 हज़ार करोड़ डॉलर या करीब 15 लाख करोड़ रुपये का हो चुका होगा।इतने बड़े और लगातार बढ़ते हुए बाज़ार पर क़ब्ज़े के लिए दुनिया और देश की बड़ी- बड़ी कंपनियों में जंगी मुक़ाबला होना स्वाभाविक है। शायद इसीलिए ज़रूरी भी है कि सरकार सही समय पर क़ानूनों में वे बदलाव कर दे कि भविष्य में पछताना न पड़े।

भेदभाव नहीं

कुछ जानकारों का मानना है कि ई कॉमर्स पर सरकार के नए नियमों में एक बहुत अच्छी बात यह है कि इसमें देशी विदेशी कंपनी के बीच कोई भेदभाव नहीं किया गया है। यानी किस कंपनी में कितना विदेशी पैसा लगा है इस आधार पर उसके काम करने के तरीके परिभाषित नहीं किए गए हैं।

शायद यही वजह है कि इन नियमों से एमेजॉन, वॉलमार्ट के नियंत्रण वाली फ्लिपकार्ट, सॉफ्टबैंक की हिस्सेदारी वाली स्नैपडील, अलीबाबा की हिस्सेदारी वाली पेटीएम के साथ साथ टाटा समूह की बिग बास्केट और रिलायंस का जियोमार्ट एक साथ ही प्रभावित होते हैं।इसका अर्थ है कि यह नियम एक तरह से भारत की एक समग्र ई कॉमर्स पॉलिसी की बुनियाद रख सकते हैं, जबकि विदेशी निवेश का फैसला सरकार अलग से कर सकती है और उसपर अलग नीति भी बन सकती है।

 सरकार की सफाई

इस विवाद के बीच सरकार की तरफ से यह सफाई भी आई है कि वह कंपनियों के कामकाज पर बेवजह लगाम कसने का इरादा नहीं रखती है।हर तरह की सेल या फ्लैशसेल पर भी रोक नहीं लगाई जा रही है। सिर्फ ऐसी फ्लैश सेल पर पाबंदी लगाने का इरादा है जिसमें किसी खास कंपनी के ही प्रोडक्ट बहुत ज्यादा डिस्काउंट पर बेचकर बड़ी संख्या में लोगों को अपनी तरफ खींचने का इरादा दिखता है।

गड़बड़ियाँ

इसके साथ ही सरकार ने जो सूचना जारी की है, उसमें कहा गया है कि कंपनियों के ख़िलाफ़ बड़ी संख्या में धोखाधड़ी और गड़बड़ियों की शिकायतें मिलने के बाद यह नया नियम लाए गए हैं। हालांकि सरकार ने यह नहीं बताया कि किस कंपनी के खिलाफ शिकायतें मिली हैं।लेकिन इन नियमों से खासकर एमेजॉन और फ्लिपकार्ट जैसी कंपनियों के लिए परेशानी खड़ी होती दिख रही है, क्योंकि इनकी सहयोगी कंपनियों का सामान भी इनकी साइट पर बिकता है। छोटे व्यापारियों को या घरेलू उत्पादों को बढ़ावा देने के लिये यह भी कहा गया है कि अगर साइट पर कोई विदेशी प्रोडक्ट दिखता है तो उसके भारतीय विकल्प भी साथ में दिखाए जाएं। अभी कंपनियां भी नियमों को पढ़ने में जुटी हैं और जानकार भी। इनमें फेरबदल की गुंजाइश भी बाकी है। लेकिन इतना तय है कि इस कारोबार में बहुत बड़ी- बड़ी कंपनियों की दिलचस्पी है।जिस तरह देश के सबसे बड़े रिटेलरों में से एक फ्यूचर ग्रुप को कारोबार बेचने पर मजबूर होना पड़ा, उसे देखते हुए सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह ग्राहकों और छोटे दुकानदारों के संरक्षण के लिए पूरी सावधानी से फ़ैसला करे।

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