पढ़िए पिताजी की छोटी सी कहानी  : जिसने परिवार के लिए एमबीबीएस में दाखिला नहीं लिया

– शिक्षक बन सभी को संवारा


रणघोष खास. नवीन अरोडा की कलम से

इस सृष्टि पर ऐसा कोई शब्द नहीं है जो माता पिता को संपूर्णता के साथ अभिवक्त करा सके। वे परमात्मा के स्वरूप में हम सभी को धरती पर मिलते हैं। इसका सही अहसास  माता-पिता बनने के बाद महसूस होता है।  1 अपैल को पिताजी (श्री रमेश कुमार अरोड़ा) 75 साल के हो गए। पिता पर लिखना, बोलना और कह पाना आसान नहीं है। बस जेहन में रहकर महसूस और अहसास किया जा सकता है। जीवन में पहली बार दैनिक रणघोष के अनुरोध पर पिताजी की जिंदगी से मुलाकात करने का मौका मिला। शब्दों में इतनी हिम्मत नहीं थी की वे उनके बारे में लिखने के लिए आगे आए। रह रहकर अपने बचपन में लौट आया। हम दो भाई है।  जब मां (संतोष अरोड़ा) उनके बारे में बताती थी। हमारा परिवार पहले शहर के भाड़ावास गेट के पास भजनका बाग मोहल्ला में रहता था। बाद में हम मॉडल टाउन में आ गए।  हमारा परिवार बेहद ही साधारण परिवेश में आगे बढ़ा । दादाजी की रेवाड़ी शहर के मोती चौक पर साबुन की छोटी सी दुकान थी। पिताजी पांच भाई एवं दो बहनों  में सबसे बड़े थे। पढ़ाई में बेहद होशियार थे। इसलिए उनका चयन गंगानगर मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस के लिए हो गया। पिताजी बचपन से ही अपने पिता के कामकाज में पूरा सहयोग करते ओर अपने छोटे भाई बहनों की पढ़ाई का पूरा ध्यान रखते। ऐसे में उनके लिए घर छोड़कर गंगानगर मेडिकल कॉलेज जाना आसान नहीं था। उन्होंने अपने जीवन का बड़ा निर्णय लिया ओर परिवारिक जिम्मेदारी के लिए कॉलेज में दाखिला नहीं लिया। अगर वे उस समय मेडिकल की पढ़ाई कर लेते तो आज इस क्षेत्र के सबसे सीनियर डॉक्टर्स की श्रेणी में होते। खैर उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। पंजाब यूनिवर्सिटी से बीएससी उसके बाद अंग्रेजी में एमए किया। अनेक सरकारी नौकरियां मिली और अंत में शिक्षक का पद स्वीकार कर लिया। मां भी शिक्षिका के तौर पर उन्हें मिली। दोनो अपना वेतन मिलते ही दादाजी को थमा देते ओर दादाजी उन्हें आवश्यकता के हिसाब से दे देते। यह हमारे परिवार की परंपरा रही है। परमात्मा ने सभी माता पिता को विशेष शक्तियां दी हुई है कि वे इस स्वरूप में आने के बाद अपने लिए कभी नहीं जीते। यहां तक की विपरित परिस्थितियों को भी सहन कर अपने बच्चो को इसका अहसास नहीं होने देते। पिताजी ने तमाम दौर में अपनी सरलता, सहनशीलता एवं ईमानदारी को कभी इधर से उधर नहीं होने दिया। मां बताती थी की वे स्कूल में भी जब सांइस का शिक्षक नहीं होता था। छुटटी के बाद भी अलग से बच्चो की क्लास लेते थे ताकि उनका भविष्य बेहतर रहे। ऐसी बहुत सी बातें व कहानियां आज भी जेहन में घुमती है जिस पर लिखने का मतलब एक ऐसी पुस्तक को जन्म देना है जो किसी भी परिवार में रखी श्रीमद भागव गीता से कम पवित्र नहीं है।  16 जून 2008 को मा अपनी सारी जिम्मेदारियों को पूरी तरह से निभाने के बाद हमें छोड़कर चली गईं। जाते जाते परिवार के प्रत्येक सदस्य में संस्कार का वह वो संचार कर गई जिसकी महक हर समय बनी रहती है। पिताजी इस बगीचे के माली है जिनकी आज 75 साल की छत्र छाया में हम तमाम परिस्थितयों में खिलखिलाते और मुस्कराते हुए आगे बढ़ रहे हैं।