बेजुबान समाज में हत्यारा बन गया हमारा सिस्टम
रणघोष खास. प्रेम कुमार
क्या फ़ादर स्टैन स्वामी की मौत स्वाभाविक है? अगर फ़ादर स्टैन की गिरफ़्तारी नहीं हुई होती, वे अपने घर में होते तो क्या उनकी मौत होती? आखिर किस गुनाह के लिए वे अपने जीवन के अंतिम 217 दिन जेलों में रहे? न चार्जशीट दायर हुई, न ट्रायल हुआ। न समय पर इलाज मिला और न ही जेल में एक आम क़ैदी को जो सुविधाएं मिलती हैं, वे मयस्सर हुईं। यह सब इसलिए क्योंकि स्टैन स्वामी ने माओवादियों से सांठगांठ के आरोपों में जेलों में बंद 3,000 से ज़्यादा आदिवासियों की रिहाई के लिए आवाज़ बुलंद की थी। इसकी सज़ा खुद उन पर माओवादियों से सांठगांठ होने और इसी हाल में मौत के मुँह में चले जाने के रूप में मिली।
मौत स्वाभाविक नहीं
- स्टैन स्वामी की मौत इसलिए भी स्वाभाविक नहीं है क्योंकि उन्हें राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के तहत मानवाधिकार तक के लिए तरसना पड़ा।
- क्या 84 साल की उम्र में बग़ैर चार्जशीट और ज़मानत के जीवन के अंतिम 217 दिन जेल में गुजारना स्वाभाविक हो सकता है?
- सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद कोरोना काल में एक अंडर ट्रायल बुजुर्ग को रिहा नहीं करने और जेल में रखने को क्या स्वाभाविक माना जा सकता है?
- हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद अस्पताल भेजने में 10 दिन की देरी हुई। यही देरी फ़ादर स्टैन की मौत की वजह बन गयी। क्या इस देरी को स्वाभाविक माना जा सकता है?
- मौत से महज 3 दिन पहले ही फ़ादर स्टैन को पसंद का अस्पताल मिल सका। क्या इसे स्वाभाविक माना जा सकता है?
- जिनके दोनों कानों में हों श्रवण यंत्र (हियरिंग एड), हाथ से भोजन करने की स्थिति न हो, चम्मच तक मुँह में डाल पाने की स्थिति न रही हो; पाइप के इस्तेमाल की अनुमति के लिए अदालत से इजाज़त लाने पडे तो क्या यह स्वाभाविक है?
बेज़ुबान क्यों है समाज?
ज़ाहिर है, इतनी सारी अस्वाभाविक स्थितियों के रहते फ़ादर स्टैन स्वामी की मौत अस्वाभाविक नहीं हो सकती। यह हत्या है। इस हत्या का जिम्मेदार ‘सिस्टम’ है। वो सिस्टम जो 3 हज़ार आदिवासियों को माओवादी कहकर जेल में रखता है, उसके लिए आवाज़ उठाने पर खुद उसे भी माओवादी घोषित कर देता है। साबित करने की ज़रूरत नहीं समझता।वह ‘सिस्टम’ जिसके इकोसिस्टम के हिसाब से पुलिस, जेल प्रशासन और यहाँ तक कि अदालत भी ढल चुकी लगती है। यह बात फ़ादर स्टैन के मामले में ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है। स्टैन स्वामी की मौत की खबर सुनकर बॉम्बे हाईकोर्ट की खंडपीठ की प्रतिक्रिया रही- ”हम सचमुच इस खबर से स्तब्ध हैं। इसलिए, पिछली सुनवाई में हमने तुरंत उन्हें अपनी पसंद के अस्पताल में रहने की इजाजत दे दी थी। हम नि:शब्द हैं।”अदालत नि:शब्द है। फ़ादर स्टैन स्वामी की मौत पर प्रतिक्रिया देने के लिए वह खुद को असहज पा रही है। क्यों? आखिर अदालत इतनी लाचार क्यों हो गयी? क्या इसलिए कि समाज और देश प्रतिक्रियाविहीन हैं, बेजुबान हैं?
स्टैन ने अस्पताल नहीं, मांगी थी अंतरिम ज़मानत
जेल में बीमार फ़ादर स्टैन के लिए स्ट्रॉ और सीपर (जिससे पानी या पानी जैसा पदार्थ पिया जा सके) की अनुमति जेल प्रशासन ने नहीं दी। अदालत से आदेश लेने में 29 दिन लग गये। न तो फ़ादर स्टैन को एनआईए की अदालत से ज़मानत मिली, न हाईकोर्ट से। अनंत काल के लिए बीमार हाल में लाचार और मुआहाल जिन्दगी जीने या यूं कहें कि मरने के लिए छोड़ दिए गये। अलबत्ता बॉम्बे हाईकोर्ट ने 28 मई को फ़ादर स्टैन का निजी अस्पताल में इलाज कराने का निर्देश ज़रूर दिया। मगर, अस्पताल पहुंचते ही पता चला कि फ़ादर स्टैन कोरोना पॉजिटिव हैं।
इससे पहले जब 21 मई 2021 को ज़मानत की याचिका पर वीडियो कान्फ्रेन्सिंग से सुनवाई हो रही थी तब स्टैन स्वामी ने जो कुछ कहा था, वह बहुमूल्य है-”तलोजा जेल ने मुझे ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया कि मैं न तो लिख सकता हूं, न टहल सकता हूं और न ही खा सकता हूं। मेरी कोई माँग पूरी नहीं होती। खाने में भी दिक्क़त होती है। किसी को मुझे चम्मच से खिलाना होता है।….मैं जेजे अस्पताल जाने के बजाए इसी तरह तलोजा जेल में ही मर जाना पसंद करूंगा। मैं न्यायालय से केवल एक ही विनती करता हूं कि मुझे अंतरिम ज़मानत देने पर विचार करें।”
जून में हाईकोर्ट ने पसंद के अस्पताल में इलाज कराने की अनुमति ज़रूर दी, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। फ़ादर स्टैन की हालत बिगड़ती चली गयी।4 जुलाई को उन्हें हार्ट अटैक आया। वे वेंटीलेटर पर चले गये। अगले दिन उनकी मौत हो गयी।
देर से जागा मानवाधिकार आयोग
स्टैन स्वामी की मौत से एक दिन पहले जागा(!) राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग। महाराष्ट्र सरकार को आदेश दिया कि स्टैन स्वामी की जान बचायी जाए।अक्टूबर 2020 से यूएपीए के तहत जेल में बंद आदिवासियों के अधिकार के लिए लड़ते रहे फ़ादर स्टैन को सभी संभव चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराए जाएं।नवी मुंबई के तलोजा जेल में इलाज से मना करने के आरोपों पर भी आयोग ने रिपोर्ट मांगी। लेकिन, ये सारी पहल या कवायद निष्फल रहीं, क्योंकि अगले ही दिन स्टेन स्वामी जो मूर्छित हुए तो कभी होश में न आ सके।
दुनिया भर से उठी आवाज़, सोती रही सरकार
- फ़ादर स्टैन की मौत से पहले देश के मानवाधिकार आयोग की नींद तो खुली, लेकिन क्या सरकार कभी जागी? केंद्र सरकार को जगाने के लिए दुनिया भर से आवाज़ें उठीं, लेकिन सरकार की कानों में जूं तक नहीं रेंगी।
- यूरोपीयन यूनियन के 21 सांसदों ने 30 दिसंबर को ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील की थी कि स्टैन स्वामी को मानवीय आधार पर रिहा कर दिया जाए।
- इससे पहले मानवाधिकार पर यूरोपीयन यूनियन की सबकमेटी की प्रमुख मारिया एरेनास ने 8 दिसंबर को स्टैन की रिहाई की मांग करते हुए चिट्ठी लिखी थी।
- ह्यूमन राइट्स पॉलिसी और ह्यूमनटेरियन असिस्टेंस के जर्मन कमिश्नर बार्बेल कोफ़र ने 1 जून 2021 को भारत सरकार से स्टेन स्वामी की रिहाई की अपील की थी।
- जर्मन राजनयिक ने भी इस अपील को रीट्वीट किया था।
84 साल के बुजुर्ग से लोकतंत्र को खतरा था। यह बात न विश्वसनीय लगती है और न ही अब कभी यह साबित हो पाएगी। मगर, अब भी वरवर राव जैसे बुजुर्ग और देश के मानवाधिकार कार्यकर्ता दर्जनों की संख्या में जेलों में बंद हैं। क्या उनकी जि़न्दगी को बचाने के लिए आवाज़ उठेगी? या वे भी बगैर किसी ट्रायल के आतंकवाद और देश विरोधी होने का आरोप लिए सिर्फ इसलिए चल बसेंगे कि उन्होंने जीवन भर कमजोर तबके के लिए अपनी आवाज़ें बुलंद कीं?
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