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बार-बार आते भूकंप: पृथ्वी एक दिन ख़त्म हो जाएगी?


रणघोष खास. अनिल जैन


 उत्तर भारत और पूर्वोत्तर के इलाक़े में भूंकप यानी धरती के डोलने-थरथराने का सिलसिला नया नहीं है। लेकिन पिछले कुछ समय से यह सिलसिला बेहद तेज़ हो गया है। इस इलाक़े के किसी न किसी हिस्से में आए दिन भूकंप के झटके लग रहे हैं। पिछले साल मई और जून के महीने में कुल 14 मर्तबा भूकंप के झटकों ने दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र एनसीआर के साथ ही हरियाणा और पंजाब के एक बड़े हिस्से को भयाक्रांत किया था। हालाँकि उन सभी झटकों की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 2.0 से 4.5 तक थी, लेकिन इस बार 12 फ़रवरी की रात 6.3 की तीव्रता वाले भूकंप के झटकों ने दिल्ली-एनसीआर समेत समूचा उत्तर भारत काँप उठा। भूकंप के लिहाज से दिल्ली को हमेशा ही संवेदनशील इलाक़ा माना जाता है। भू-वैज्ञानिकों ने भूकंप की अधिक तीव्रता के लिहाज से देश को चार अलग-अलग ज़ोन में बाँट रखा है। मैक्रो सेस्मिक ज़ोनिंग मैपिंग के अनुसार, इसमें ज़ोन-5 से ज़ोन-2 तक शामिल हैं। ज़ोन-5 को सबसे ज़्यादा संवेदनशील माना जाता है। उत्तर-पूर्व के सभी राज्य, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्से तथा गुजरात का कच्छ इलाक़ा ज़ोन-5 में आते हैं। भूकंप के लिहाज से ये सबसे ख़तरनाक ज़ोन हैं।इसी तरह ज़ोन-2 सबसे कम संवेदनशील माना जाता है। इसमें तमिलनाडु, राजस्थान, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और हरियाणा का कुछ हिस्सा आता है। यहाँ भूकंप आने की संभावना बनी रहती है। ज़ोन-3 में केरल, बिहार, पंजाब, महाराष्ट्र, पश्चिमी राजस्थान, पूर्वी गुजरात, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का कुछ हिस्सा आता है। इस ज़ोन में भूकंप के झटके आते रहते हैं। ज़ोन-4 में वे इलाक़े आते हैं, जहाँ रिक्टर स्केल पर 7.9 की तीव्रता तक का भूकंप आ सकता है। इस ज़ोन में मुंबई, दिल्ली जैसे महानगर, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पश्चिमी गुजरात, उत्तराखंड के कम ऊँचाई वाले हिस्सों से लेकर उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाक़े और बिहार-नेपाल सीमा के इलाक़े शामिल हैं। यहाँ भूकंप का ख़तरा लगातार बना रहता है और रुक-रुक कर भूकंप आते रहते हैं। दरअसल, भूकंप ऐसी प्राकृतिक आपदा है जिसे न तो रोक पाना मुमकिन है और न ही उसका अचूक पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। भूकंप कैसे आता है या धरती क्यों डोल उठती है, इस बारे में तरह-तरह की कहानियाँ प्रचलित रही हैं।

प्राचीन सभ्यताओं ने धरती के थरथराने की घटनाओं को तरह-तरह के मिथकों से जोड़कर समझने की कोशिश की है। ज़्यादातर का मानना रहा है कि पृथ्वी किसी विशालकाय जंतु जैसे शेषनाग, कछुआ, मछली, हाथी की पीठ पर या फिर किसी देवता के सिर पर टिकी हुई है और जब कभी वे अपने शरीर को हिलाते हैं तो धरती डोल उठती है। भारतीय मिथक यह है कि धरती शेषनाग के फन पर स्थित है और जब भी वह अपना फन सिकोड़ते या फैलाते हैं, तब धरती थरथरा उठती है। यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने ज़मीन की गहराइयों में बहने वाली हवाओं को भूकंप का कारण माना था जबकि महात्मा गांधी की मान्यता थी कि जब धरती पर पाप की बहुतायत हो जाती है, तब वह क्रुद्ध होकर डोलने लगती है।भू-गर्भशास्त्रियों के मुताबिक़, धरती की गहराइयों में स्थित प्लेटों के आपस में टकराने से धरती में कंपन पैदा होता है। इस कंपन या कुदरती हलचल का सिलसिला लगातार चलता रहता है। वैज्ञानिकों ने भूकंप नापने के आधुनिक उपकरणों के ज़रिए यह भी पता लगा लिया है कि हर साल लगभग पाँच लाख भूकंप आते हैं यानी क़रीब हर एक मिनट में एक भूकंप। इन पाँच लाख भूकंपों में से लगभग एक लाख ऐसे होते हैं, जो धरती के अलग-अलग भागों में महसूस किए जाते हैं। राहत की बात यही है कि ज़्यादातर भूकंप हानिरहित होते हैं। लेकिन धर्मवीर भारती ने ये पंक्तियाँ उपर्युक्त कारण से नहीं लिखी होंगी- ‘सृजन की थकन भूल जा देवता! अभी तो पड़ी है धरा अधबनी।’ वे जिस सृजन की बात कर रहे हैं, वह सांस्कृतिक है। भारती का आशय यह है कि मनुष्य का सांस्कृतिक निर्माण अभी पूरा नहीं हुआ है, इसलिए सृजन का काम जारी रहना चाहिए। इस सृजन को धरती के सृजन से भी जोड़ा जा सकता है। दरअसल, धरती अभी अधबनी है। उसका निर्माण पूरा नहीं हुआ है। वह बनने की प्रक्रिया में है। और यह बनना काफ़ी गहराई तक जाता है, जिस पर पृथ्वी की देह टिकी हुई है।

वास्तव में, खगोल वैज्ञानिकों के अनुसार यह पूरी सृष्टि ही अधबनी है। यानी वह भी निर्माण की प्रकिया में है। कुछ लोगों का कहना है, सृष्टि का विस्तार हो रहा है। यह तो सभी जानते हैं कि सूर्य, चंद्र, तारे- इनमें से कोई भी स्थिर नहीं है। वे या तो बढ़ रहे हैं या घट रहे हैं। जिस दिन प्रकृति का यह चक्र टूट जाएगा, सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाएगा और कुछ भी पहले की तरह नहीं रह जाएगा। उस दिन पृथ्वी भी नहीं बचेगी। क्या इस सबके पीछे कोई योजना या व्यवस्था है? सैकड़ों वैज्ञानिक इसी प्रश्न से जूझ रहे हैं। जिस पृथ्वी को हम जानते हैं, वह तो वैसे भी बचने वाली नहीं है। कई बार हिम युग आ चुके हैं जिनमें सब कुछ बर्फ से ढका था। तब न हमारे पूर्वज थे और न ही कोई जीव-जंतु। कुछ वैज्ञानिकों की मान्यता है कि जिस तेज़ी से पृथ्वी गरम हो रही है, उससे हिमशिखरों के पिघलने का सिलसिला शुरू हो गया है। एक समय ऐसा आएगा कि सारे हिमशिखर पिघल जाएँगे और समुद्र में इतना पानी आ जाएगा कि वह अपने आसपास की बस्तियों या देशों को प्लावित कर देगा। वैज्ञानिकों का मानना है कि सूर्य का भी एक दिन अंत होना तय है। वह भी एक बौना तारा बन कर रह जाएगा और ऐसी स्थिति में पृथ्वी पर कहीं भी जीवन का नामो-निशान नहीं बचेगा। जीवन की तरह मृत्यु का भी चक्र है। इस स्थिति से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि सृष्टि की योजना में मानव जीवन या किसी भी प्रकार का जीवन नहीं  है। यानी वह एक संयोग है जिसके रहस्य का पता अभी तक नहीं चल पाया है। जीवन भले ही संयोग हो मगर भूकंप क़तई संयोग नहीं है। पृथ्वी पर जीवन रहे या नहीं रहे पर भूकंप आते रहेंगे और धरती हिलती-डुलती रहेगी। मुमकिन है कि किसी बड़े भूकंप से पृथ्वी छिन्न-भिन्न हो जाए या उसका निजाम उलट-पुलट जाए और आज जहाँ पहाड़ सीना ताने खड़े हैं, कल वहाँ महासागर लहराने लगें। हक़ीक़त तो यह है कि पृथ्वी आज भी हमसे ख़ुश नहीं है। पिछले कुछ दशकों से मनुष्य के प्रति पृथ्वी के मिजाज़ में बदलाव आ रहा है जिसे समूची दुनिया महसूस कर रही है।

जिस पृथ्वी को बनने-सँवरने में करोड़ों वर्ष लग गए, उसे हमने कुछ ही दशकों में बर्बाद कर दिया। सच तो यह भी है कि हम पृथ्वी को समझने में नाकाम रहे हैं और कभी इसकी संजीदा कोशिश भी नहीं की है। हमारी इस लापरवाही ने ही भूकंप की आमद बढ़ाई है। भूकंप जैसी कुदरती आफत के सामने हम बिल्कुल असहाय हैं। लेकिन मानव मस्तिष्क इतना ज़रूर कर सकता है कि जब भी इस तरह का कोई कहर टूटे तो हमें कम से कम नुक़सान हो। इस सिलसिले में हम जापान जैसे देशों से सीख ले सकते हैं जिनके यहाँ भूकंप बार-बार अप्रिय अतिथि की तरह आ धमकता है।

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