मीडिया को समझने के लिए जरूर पढ़े डंके की चोट पर

न्यूज वह होती है जिसे कोई दबाना चाहता है बाकि सब विज्ञापन है ..


रणघोष खास. प्रदीप नारायण


मीडिया के बाजार में जहां पल- पल सूचनाओं की बोलियां लगती है। वहां से बच पाना नामुमकिन होता जा रहा है। वजह बोली लगाने वाले ही बाजार चलाते हैं। सूचनाओं के नाम  पर यह धंधा लोकतंत्र के माहौल में ज्यादा पनपता है। न्यूज के नाम पर अलग अलग पैकेज में वह सबकुछ मिल जाता है जो सामने वाले के दिलों दिमाग पर सीधा असर डाल दे। राजनीति करने वालों के लिए एक से बढ़कर एक ऑफर आ रहे हैं। जाति- धर्म- आरक्षण के नाम पर आग लगाने व फैलाने वाली सूचनाओं की डिमांड ही पूरी नहीं हो पा रही है। स्थिति यह है अब हिंसा का लेवल तय किया जा रहा है। कौनसी चाहिए। यूपी, मणिपुर, बंगाल, नागालैंड, राजस्थान वाली जो चाहिए मिल जाएगी। चुनाव नजदीक आ रहे हैं लिहाज वेटिंग लिस्ट भी लंबी हो रही है। सीमाओं पर दुश्मनों का इलाज करना आसान है लेकिन देश के भीतर सुलग रही आग को बुझा पाना आसान नहीं है। विचारधारा की चासनी में तैयार हो रही सूचनाओं को कब दिखाना ओर दबाना है। यह सबकुछ व्यवसायिक प्लेटफार्म की पॉलिसी से तय होता है जो आमजन की मनोस्थिति को समझकर तैयार होती है। प्रिंट मीडिया चलाने वालों को पता है कि 16-18 रुपए की लागत से तैयार होने वाला अखबार 4- 5 रुपए में घरों में पहुंच रहा है। प्रति अखबार 12-13 रुपए घाटे को रिकवर के लिए विज्ञापन जरूरी है। जाहिर है विज्ञापन वहीं देगा जो बाजार में नजर आएगा। ऐसे में अखबार को जिंदा रखने के लिए बाजार के हिसाब से चलना मजबूरी बन गया है। मीडिया को नसीहत, मर्यादा, कर्तव्य का बोध कराने वालों में अधिकांश वे हैं जो मीडिया की बाजारी स्कीम कंबल, धड़ी, कप प्लेट सैट, टीवी, स्कूटी समेत बेहिसाब ऑफर के लालच में झट अखबार बदल डालते हैं। इससे उलट पाकिस्तान में अखबार की कीमत 25 रुपए है। सोचिए अगर भारत में भी एक अखबार की कीमत अगर 25 रुपये तक हो जाये, तो क्या लोग अखबार इसी प्रकार खरीद पायेंगे, जाहिर है वे अखबार से तौबा ही कर लेंगे और ले-देकर स्मार्टफोन से ही काम चला लेंगे। सच्चाई यह है जो पाठक हैं वो सही कीमत देकर पढ़ना नहीं चाहता, उसे तो पांच रुपये की अखबार में भी मुफ्त के बहुत कुछ चाहिए, और अगर अखबार मुफ्त में मिल जाये तो क्या कहने। हालात यह है कि हजारों- लाखों रुपए कार्यक्रम पर खर्च करने वाले कवरेज के लिए डिजीटल मीडिया पर नियमित पाठक के तौर पर डेढ रुपए प्रतिदिन खर्च करने में भी अपना बीपी शुगर बिगाड़ लेते हैं। ऐसे हालात में अगर कोई पत्रकार या मीडिया का मालिक उस खबर को उजागर करता है जिसे कोई दबाना चाहता है तो समझ जाइए सूचनाओं के जिंदा रहने की गुंजाइश अभी बची हुई है नहीं तो बाकि जो छप रहा है उसे विज्ञापन का चेहरा समझकर भूल जाइए। कैथरीन ग्राहम ने काव्य पीडिया पर सही लिखा है न्यूज वह होती है जिसे कोई दबाना चाहता है बाकि सब विज्ञापन है..।

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