रणघोष की सीधी सपाट बात

कंवर सिंह की 10 वीं की मार्क्ससीट ने सिस्टम, राजनीति की मानसिकता को अयोग्य साबित कर दिया


रणघोष खास. सुभाष चौधरी


13 माह पहले नगर पालिका धारूहेड़ा चुनाव में जनता के वोटों से सीधे चेयरमैन बने कंवर सिंह की दसवीं की मार्क्ससीट ने हरियाणा के सरकारी सिस्टम्, नेताओं की आपस में एक दूसरे को नीचा दिखाने की राजनीति, निर्वाचन आयोग की कार्यप्रणाली, शिकायतकर्ताओं की मंशा ओर सिस्टम के कर्ता- धर्ताओं की तमाम तरह की योग्यताओं को अयोग्य करा कर दिया है। कवंर सिंह 4 फरवरी को विधिवत तौर पर चेयरमैन की शपथ लेंगे।

उससे पहले 10 वीं की मार्क्स सीट के असली नकली होने के नाम पर चले विवादों में छिपे सच को समझना बहुत जरूरी है। हमेशा यह याद रखे राजनीति पदों को लेकर अभी तक जितने भी विवाद होते रहे हैं उसका खामियाजा उन लोगों ने भुगता है जिसे चुनाव के समय मतदाता एवं लोकतंत्र का चेहरा कहा जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि निर्वाचन आयोग के इस कदम से  कंवर सिंह की प्रधानी का रास्ता लगभग पूरी तरह साफ हो चुका है। दरअसल कंवर सिंह की 10 वीं मार्क्स सीट का असली नकली होना तो एक बहाना था। चुनाव में ही कंवर सिंह ने जिस सादगी और अपने कुशल व्यवहार से जीत हासिल की उसे उसके विरोधी पचा नहीं पाए। अधिकतर उम्मीदवार तो अपनी माया के धमंड में चूर नजर आए। उनका भ्रम था कि पैसो के बल पर सबकुछ खरीदा ओर बदला जा सकता है। ऐसा उन्होंने करके भी दिखाया लेकिन जनता ने उन्हें बुरी तरह नकार दिया। चुनाव में शैक्षणिक योग्यता के आधार पर उम्मीदवार का 10 वीं पास होना जरूरी था। हार चुके विरोधियों ने कंवर सिंह के जमा कराए योग्यता के प्रमाण पत्रों को संदिग्ध मानकर उसके खिलाफ शिकायत दर्ज करवा दी। यहीं से राजनीति शुरू हो गईं। कंवर सिंह ने पहले हरको बैंक के चेयरमैन अरविंद यादव का आशीर्वाद लिया ओर उनके माध्यम से भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ एवं मुख्यमंत्री मनोहरलाल से भी शुभकामनाएं प्राप्त कर ली। उधर केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह खेमा कंवर सिंह के खिलाफ हो गया। इंकवायरी कंवर सिंह के खिलाफ चली गई तो वे कोर्ट में चले गए। हाईकोर्ट ने कंवर सिंह के पक्ष में निर्णय सुनाया और इसी दौरान दुबारा से चेयरमैन चुनाव के मतदान से एक पहले उस पर रोक लगा दी। कंवर सिंह क्षेत्र में दो खेमों में बंटी भाजपा की राजनीति में फंस चुके थे। ऐसे में उन्हें लगा कि राव इंद्रजीत सिंह मजबूत हैसियत रखते हैं लिहाजा वे उनकी शरण में चले गए। कुल मिलाकर जनता के वोटों से चेयरमैन बना यह शख्स दसवीं की मार्क्स सीट के बहाने नेताओं की राजनीति का शिकार होता रहा। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। निर्वाचन आयोग की कार्यप्रणाली भी माहौल के हिसाब  से बदल रही थी। उधर कंवर सिंह से हार चुके उनके विरोधी दुबारा चुनाव कराकर अपनी हार को जीत में बदलने के लिए कानून की लड़ाई में उम्मीद देख रहे थे। साधारण छवि के कंवर सिंह के लिए एक साथ कई मोर्चों पर लड़ना आसान नहीं था लेकिन उसने अंतिम समय तक धैर्य नहीं खोया। नतीजा कंवर सिंह की हिम्मत जीत गईं और विरोधियों के इरादे हार गए। हालांकि सुप्रीम कोर्ट से अभी निर्णय आना बाकी है।

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